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Jhansi Ki Rani In Hindi
महारानी लक्ष्मीबाई - रानी लक्ष्मी बाई की कहानी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ मिलकर अग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी । भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की देवी, जिसने भारत के वीरों में क्रांति की ज्वाला भर दी । देश को अग्रेजों से स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी ।
Rani Lakshmi Bai Ki Kahani |Rani Lakshmi Bai | Jhansi Ki Rani History | Lakshmi Bai
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी के असीघाट वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था तथा निधन 18 जून 1858 को हुआ था। उसके ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। जब उनकी उम्र 12 साल की थी, तभी उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ कर दी गई। रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही साबित कर दिया कि वह न सिर्फ बेहतरीन सेनापति हैं बल्कि कुशल प्रशासक भी हैं. वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की भी पक्षधर थीं. उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी। आज कुछ लोग जो खुद को महिला सशक्तिकरण का अगुआ बताते हैं वह भी स्त्रियों को सेना आदि में भेजने के खिलाफ हैं पर इन सब के लिए रानी लक्ष्मीबाई एक उदाहरण हैं कि अगर महिलाएं चाहें तो कोई भी मुकाम हासिल कर सकती हैं।
लक्ष्मी बाई - लक्ष्मी बाई की वीरता की कहानी - लक्ष्मी बाई की कहानी - लक्ष्मी बाई की इतिहास
तेरह नवंबर सन् 1835 में मोरोपन्त तांबे के गृह में एक कन्या रत्नं ने जन्म लिया।
उसका नाम माता भगीरथीबाई ने मनूबाई रखा। मोरोपन्त तांबे जाति के ब्राह्मण थे। वे सतारा जिला के रहने वाले थे।
परिस्थितियां और जीविज्ञा उन्हें परदेश ले आई। वे काशी-प्रवास कर रहे थे, उनके कोई सन्तान नहीं थी।
बहुत दिनों की आशा-प्रतीक्षा के बाद उन्होंने कन्या का मुंह देखा। दम्पती ने खूब खुशियां मनाईं। उनके आनन्द का पारवार न रहा।
मोरोपन्त तांबे एक कुशल पंडित थे और ज्योतिष विद्या पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। नगर बनारस में उनकी प्रतिष्ठा थी।
लोग सम्मान करते और उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। उनकी पत्नी का स्वभाव भी सरल था। वह मृदु-भाषिणी थी।
मनूबाई को जब वह गोद में लेती तो सुंदर-सुंदर सपने देखती कि वह अपनी लड़की का विवाह बड़ी धूम-धाम से करेगी।
मोरोपन्त तांबे मन ही मन ईश्वर को सराह रहे थे कि वास्तव में उन्हें जीवन का सच्चा सुख अब मिला है। वे भी कन्या को देखकर फूले नहीं समाते।
अधिक चिंता और सोचने के कारण भगीरथी बाई का स्वास्थ्य खराब हो गया था, यद्यपि मनूबाई के जन्म के बाद उनकी तंदुरुस्ती में कुछ सुधार अवश्य हुआ; किंतु वे पूर्णतया नीरोग नहीं हो पाईं। मनूबाई दो-तीन महीने ही मां की गोद में खेली। एक दिन वह गोद उससे छिन गई।
भगीरथी बाई चल बसी। उन्हें केवल दो-तीन दिन ज्वर आया और उसी में उनका प्रणान्त हो गया। मोरोपन्त माथा पीटकर रह गए। उन्होंने पुत्री को गले से लगा लिया और पत्नी का दुःख भूलने का प्रयत्न करने लगे।
मोरोपन्त तांबे मनु-बाई को इतना प्यार करते कि वे उसे छोड़कर कहीं नहीं जाते। वे मां की तरह उसका लालन-पालन कर रहे थे। अभी वे युवा थे। लोगों ने उन्हें दूसरा ब्याह करने की सलाह दी; किंतु वे उस पर सहमत नहीं हुए।
उनका कहना था कि मैं अपनी पुत्री का पालन-पोषण करूंगा। मुझे ब्याह की इच्छा नहीं, मैं सादा जीवन व्यतीत करूंगा।
एक बात और थी। जब से भगीरथी बाई की मृत्यु हुई, तांबे का मन काशी में नहीं लग रहा था। वे काशी छोड़ना चाहते थे; लेकिन गंगा-तट नहीं।
गांगाजी पर उनकी अपार श्रद्धा थी, उनके सहारे से काशी आकर रहने का एक कारण यह भी था।
संयोग की बात-एक बार झांसी के राज्य-ज्योतिषी काशी आए। दशाश्वमेध घाट पर मोरोपंत तांबे की उनसे भेंट हुई।
उन्होंने उन्हें प्रेरणा दी और कहा कि तुम चलकर बिठूर में रहो, वहां भी गंगा का किनारा है। मेरे द्वारा तुम्हें वहां दरबार में स्थान मिल जाएगा। बिठूर के पेशवा लोगों का बोल-बाला है।
झांसी के राज-ज्योतिषी की बातों पर मोरोपन्त तांबे ने खूब गहराई के साथ विचार किया। उसे लगने लगा कि वह बिठूर में जाकर अपना जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत कर सकेगा। अतः कुछ दिन बाद उसने मनु-बाई को लेकर बिठूर की यात्रा आरम्भ कर दी।
मार्ग में जितना कष्ट मिला और जो संकट भोगने पड़े, मोरोपन्त तांबे वे सब बिठूर आकर भूल गए।
अब मनु-बाई उनकी जिंदगी का एक मात्र सहारा थी। दूज के चन्द्र की भांति वह धीरे-धीरे बढ़ रही थी।
तांबे उसे खेल में मगन पाता तो दूर से उसका आनंद लेता। उसे पत्नी की सुधि आ जाती तो आंखें भर आतीं, चेहरे पर मुस्कान दौड़ जाती। वह मन ही मन कहता-“कि देखो भगीरथी “तुम्हारी गुड़िया कैसी खेल रही है। दोनों आंखों से नहीं, उसे एक आंख बंद करके देखना, नहीं तो नज़र लग जाएगी।"
इसके बाद यह होता कि मनु-बाई बाप की गोद में होती और वह उसके प्यार में निहाल हो जाता।
अब मनूबाई तीन साल की हो गई थी।
वह नाना के साथ दिनभर खेलती, दोनों में बहुत अधिक स्नेह हो गया था।
नाना बाजीराव पेशवा का दत्तक पुत्र था। वह राजकुमार था और राजमहलों में रहता था।
बालिका मनूबाई को वह बहन के समान प्यार करता वह उसे अत्यंत स्नेह करता था।
मनूबाई और राजकुमार नाना, दोनों ही बच्चे होनहार थे। वे आपस में प्रेम से खेलते।
किसी ने भी नहीं देखा कि कभी उनमें झगड़ा हुआ हो। दोनों बहुत तेज दौड़ते थे। पांच साल की अवस्था में ही मनूबाई इतनी निपुण हो गई थी कि वह छोटे-मोटे नाले को छलांग द्वारा फांद जाती-उसकी भी शिक्षा महल में ही होती।
राजकुमार के साथ वह घोड़े की सवारी करती। हथियारों का चलाना सीखती।
वे दोनों साथ ही साथ शस्त्र-अस्त्र चलाने का अभ्यास करते। यह देख राय साहब तो प्रसन्न होते ही मोरोपन्त तांबे भी अपनी पुत्री पर बलि-बलि जाते। उन्हें मन ही मन गर्व
होने लगता कि उन्हें बड़ी होनहार बेटी मिली है।
मनूबाई स्वभाव की बड़ी चपल थी। उसकी छवि बड़ी आकर्षक थी।
कुशाग्र बुद्धि के कारण ही उसका उपनाम छबीली पड़ गया। लोग उसे प्यार से यही नाम लेकर पुकारते और छबीली दौड़ी चली आती।
मनूबाई की शिक्षा-दीक्षा लड़कों के साथ हो रही थी। उसमें स्त्रियोचित लाज-डर झिझक और संकोच कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था वह जीवट और साहस। वह रामायण की कथा ध्यानपूर्वक सुनती।
महाभारत की गाथाएं उसमें साहस का संचार करतीं। उसमें पुरुषार्थ इस अल्पायु से ही समाता जा रहा था।
मनूबाई अब सात साल की हो गई थी। उसका अध्ययन अनवरत रूप से चल रहा था। घुड़सवारी वह खूब करती। तलवार चला लेती।
सैनिकों की देख-रेख में राजकुमार के साथ जंगल में शिकार के लिए जाती। उसके साहस को जो भी देखता, दांतों तले उंगली दाब लेता।
मनूबाई के पिता मोरोपन्त तांबे को ही वह प्रिय नहीं थी बल्कि पूरा राज-घराना मनूबाई पर जान देता।
प्रत्येक उसके लिए मंगल की कामना करता। वह पढ़ती तो खूब मन लगाकर। खेलती सुधबुध खोकर और जब हथियार चलाना सीखती तो सतर्क रहती, चैतन्य हो जाती और दौड़ते समय तो उसमें बिजली सी भर जाती।
इस छोटी सी ही उम्र में मनूबाई ने तैरना भी सीख लिया था। बरसात की चढ़ी गंगा में भी वह तैरती।
गोता लगा जाती और फिर उछल कर बाहर आती। उसका यह कौतुक देखकर लोग आश्चर्य करते और कहते कि यह ईश्वर की देन है। वैसे मोरोपन्त तांबे का ऐसा भाग्य कहां जो उसे यह संतान मिलती!
राज ज्योतिषी तांता जी भी मनूबाई को बहुत चाहते थे। वे उसे पुत्रिवत् स्नेह करते, ज्ञान की बातें सिखलाते।
उसे ऐसी प्रेरणा देते जिससे उसमें स्फूर्ति आती और साहस का संचार होता। वह नानाराव के साथ अपना सारा समय व्यतीत करती।
कमाल की बात, उसने इस छोटी सी अवस्था में ही शतरंज का खेल भी सीख लिया था।
नानाराव के साथ जब फड़ बिछाकर बैठती तो उसे मात दिए बिना नहीं रहती। वह छूटते ही कहती कि अपनी शह बचाओ राजकुमार, नहीं तो बाजी अभी मात होती है।
नानाराव हंसने लगता और हंसते-हंसते बाजी हार जाता। फिर जब उसकी पारी आती वह जीतता तो मनूबाई को तंग करता, अपनी छबीली को चिढ़ाता।
घुड़दौड़ के लिए जब दोनों मैदान में जाते और घोड़ों की पीठ पर बैठते तो उनमें आपस में होड़ लगती कि देखू किसका घोड़ा आगे जाता है।
तलवार चलाने में भी दोनों दक्ष थे। वे घंटों अभ्यास करते फिर भी नहीं थकते। अध्ययन में भी दोनों की रुचि थी। वे मन लगाकर पढ़ते। शिक्षक दोनों से संतुष्ट थे।
राजमहल की स्त्रियां जब मनूबाई को छबीली कहकर पुकारती तो वह हंसवार उनके पास आ जाती। अधिक स्नेह करने वाली के गले से लिपट जाती। दुलार दिखलाती, प्यार जताती।
वह किसी को भी गैर नहीं समझती, सबमें बड़ी जल्दी घुल-मिल जाती।
उसका स्वभाव बड़ा ही सरल और सादगी से पूर्ण था। केवल खेलकूद के समय वह चपल और चंचल मालूम होती।
राजकुमार नानाराव मनूबाई को बहुत स्नेह करता। वह उसके बिना भोजन नहीं करता।
उससे अवस्था में तीन चार साल बड़ा था। इस नाते उसे छोटी बहन समझता। उसका साथ उसे ऐसा लगता जैसे भाई और बहन का कि भाई आगे चलता है तो बहन उसकी मंगल कामना करती हुई पीछे भागती है। वह भाई के दुःख को अपना दुःख समझती और सुख में हंसती हुई दिखलाई पड़ती।
खेलकूद के दौरान या शस्त्र और अस्त्र के अभ्यास में अथवा दौड़-धूप में जब कभी छबीली के चोट लग जाती। वह रोने लगती तो नानाराव उदास हो जाता।
वह रोनी सी सूरत बना लेता। तभी मनूबाई हंसकर बोल उठती कि “वाह चोट मेरे लगी और उदास तुम हो गए, लो मैं रोई कहां, मैं तो हंस रही हूं। बहादुर लोग कभी रोते नहीं।
वे सीने में घाव लगने पर भी हंसते रहते हैं।" इस पर नाना भी हंस देता और फिर दोनों मिलकर इतना हंसते कि हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते।
राजमहल में कौन ऐसा था जिसे छबीली से प्यार नहीं था। वह बालिका बड़ी आकर्षक छवि की थी।
स्फूर्ति उसकी रग-रग में समा रही थी।
उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी। कार्य कलापों से ही नहीं देखने में भी वह विलक्षण लगती थी।
छबीली उसका प्यार और दुलार का नाम था। वह मनूबाई थी, मोरोपन्त तांबे की पुत्री जो अब राजकुमारियों जैसी शिक्षा-दीक्षा पा रही थी।
मनूबाई का ब्याह
बिठूर के राज-ज्योतिषी तांता जी एक प्रभावशाली व्यक्ति थे।
निकटवर्ती राज्यों में भी वे सम्मान की दृष्टि से देखे जाते।
उनकी इच्छा थी कि मनूबाई का ब्याह किसी राजघराने में ही हो, क्योंकि वह बालिका विलक्षण बुद्धि की थी।
एक बार किसी कार्यवश वे झांसी गए। वहां के वृद्ध राजा गंगाधर राव के कोई रानी नहीं थी।
वे इस बुढ़ापे में भी ब्याह के इच्छुक थे। तांता जी ने अवसर से लाभ उठाया। उन्होंने राजा गंगाधर राव से मनूबाई का जिक्र किया और बतलाया कि वह लड़की होनहार है।
राजकुमारियों वाले सभी गुण उसमें विद्यमान हैं।
गंगाधर राव ने तांता जी की बात मान ली।
इधर बिठूर आकर राज-ज्योतिषी ने मोरोपन्त तांबे को यह समाचार बतलाया कि झांसी के राजा गंगाधर राव मनूबाई के साथ ब्याह करने को तैयार हैं; यद्यपि वृद्ध राजा के साथ तांबे अपनी पुत्री का ब्याह करने के लिए तैयार नहीं थे; तथापि राज-ज्योतिषी तांता ने उन्हें यह प्रलोभन दिया कि उनकी पुत्री रानी बनकर रहेगी, दामियां उसकी सेवा करेंगी।
यह सौभाग्य प्रत्येक को प्राप्त नहीं होता।
इस तरह मोरोपन्त तांबे मनूबाई का ब्याह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ करने को तैयार हो गए। सन् 1842 में जब मनूबाई सात वर्ष की थी-उसका ब्याह कर दिया गया और वह बिठूर से विदा होकर झांसी के राज-महल में पहुंच गई।
अठारहवीं सदी में पेशवाओं ने झांसी राज्य की नींव डाली।
पेशवा वहां रह कर स्वयं राज-काज नहीं देखते; बल्कि मराठा सूबेदार को यह कार्य सौंप देते थे; लेकिन सन् 1818 में पेशवा राज्य का अन्त हो गया।
बाजीराव द्वितीय के आत्म-समर्पण करने के बाद झांसी पर फिरंगियों का कब्जा हो गया।
जब मनूबाई का ब्याह हुआ तो उस समय पेशवा की ओर से राव गंगाधर झांसी का राज्य-कार्य कर रहे थे।
वे अपने तई स्वतंत्र नहीं थे। ईस्ट-इण्डिया कंपनी के साथ उनकी संधि थी-जिसके फलस्वरूप झांसी में अंग्रेजी सेना राज्य के खर्च से रखी हुई थी।
राजा को ही नहीं, जनता को भी यह बात पसंद नहीं थी, लेकिन सभी विवश थे, इसीलिए मौन थे; क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व सारे भारत परठा रहा था।
मनूबाई अभी बालिग ही थी; किंतु उसने रनिवास में उसी परंपरा का पालन किया, जो रानियां करती हैं। उसकी सेवा के लिए सुंदर-सुंदर और काशी से तीन दासियां रखी गईं। वह भी अब मनूबाई नहीं रही।
वह झांसी की रानी थी और अब लक्ष्मीबाई के नाम से पुकारी जाने लगी।
राजा गंगाधर राव को अपनी रानी लक्ष्मीबाई पर गर्व था।
उन्हें अच्छी तरह याद था कि लग्न-मण्डप के नीचे मनूबाई ने पंडित से कहा था कि 'पक्की-गांठ बांधना पंडित जी, कहीं न जाय।" वे जानते थे कि लक्ष्मीबाई में विलक्षण प्रतिभा है और वह दिन-प्रतिदिन विकास की ओर अग्रसर होती जा रही है। वे देखते कि लक्ष्मीबाई जब उनके साथ शतरंज खेलने बैठती तो घंटों बीत जाते और वह अपनी बाजी मात नहीं होने देती।
घुड़सवारी में वह निपुण थी ही, इसके अतिरिक्त उसे शिकार का भी शौक था।
वह राज-काज में भी अपने पति का हाथ बंटाती, अपनी तीक्ष्ण-बुद्धि का परिचय एवं परामर्श देती। इस तरह राजा उससे प्रसन्न ही नहीं पूर्णतया प्रभावित थे।
गंगाधर राव मनूबाई को रानी कहकर पुकारते। वे प्यार से उसे लक्ष्मीबाई भी कहा करते।
वे रानी की दासियों को हमेशा टोका करते कि-'देखो, लक्ष्मीबाई का बहुत ध्यान रखो, उसे किसी तरह का भी कष्ट न हो, उसकी हर जरूरत पूरी की जाए।
वह तुम्हारी रानी है और तुम्हारी ही नहीं-इस पूरे झांसी राज्य की।" इसीलिए काशी, सुन्दर और मुन्दर हमेशा सजग रहतीं, वे रानी को हाथों-हाथ लिये रहतीं।
दासियों को इस बात की बहुत बड़ी प्रसन्नता थी कि उनकी रानी उनके साथ सखी-सहेलियों जैसा व्यवहार करती है, वह रानी और दासी का भेद नहीं मानती।
यही कारण था कि सुन्दर उस पर जान देती, मुन्दर उसकी बलायें लेती नहीं अघाती और काशी उसके पीछे-पीछे घूमती। रानी यह जानती थी उसको मन बहलाने के लिए तीन सहेलियां मिली हैं।
वह क्या करती-एक नया कौतुक। गंगाधर राव भी यह देखकर हंस देते। वे देखते कि घुड़सवारी के लिए एक घोड़ा नहीं लक्ष्मीबाई ने चार घोड़े मंगाये हैं। तीनों दासियों के साथ रानी घोड़े की सवारी करती। वह अपनी दासियों को तलवार चलाना भी सिखलाती।
व्यायाम में भी लक्ष्मीबाई की विशेष रुचि थी। वह दौड़ लगाती, तीनों दासियों के साथ। छलांग मारती, ऊंचे से कूदती और कूद पड़ती भरी नदी में और पलक मारते ही उसे तैर कर पार कर लेती।
सुंदर और मुंदर को यह लग रहा था कि उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। रानी लक्ष्मीबाई उनके लिए एक बहुत बड़ी सौगात बनकर आई है।
और, काशी का रंग-ढंग निराला था। वह ऐसा करती कि जब रानी सो जाती तो उस पर चंवर डुलाते-डुलाते उसके पास ही बैठ जाती।
उस समय सुंदर और मुंदर रानी के चरण दबातीं, तभी काशी अपनी कांख से एक छोटी सी डिबिया निकालती। वह रानी की गोरी ठुड्ढी पर काजल का छोटा सा तिल बना देती।
लक्ष्मीबाई जब सोकर उठती और आईने में अपना मुंह देखती तो तीनों दासियों को मीठी डांट बताती कि यह किसकी शरारत है ?
तभी काशी दोनों हाथ बांधकर उसके सामने खड़ी हो जाती और लिहाज़ के साथ दया की भीख मांगती हुई कहती कि कुसूर मुआफ करें सरकार! मैंने सोचा कि महारानी के गोरे मुंह पर काला तिल जरूर होना चाहिए।
आप नहीं जानतीं हुजूर, पत्थर को भी नज़र लग जाती है। अगर यह गलत हो, तो लौंड़ी सामने खड़ी है, उसका सिर कलम करवा दो।
तब समां बहुत ही निराला हो जाता।
लक्ष्मीबाई काशी को गले से लगा लेती वह हंसने लगती और तभी देखा जाता कि सुंदर और मुंदर की आंखों में भी खुशी के आंसू छलक आये हैं।
पता नहीं, वे रानी के प्रति सम्मान के सूचक होते अथवा इसके प्रतीक, कि उनकी महारानी में कितना अधिक सौहार्द्र है।
गंगाधर राव को पत्नी से अनुराग
लक्ष्मीबाई के ब्याह को पांच साल व्यतीत हो गए।
अब वह बारह वर्ष को बालिका नहीं युवती तुल्य प्रतीत होती।
उसके अंग-प्रत्यंग में निखार आ गया था। दासियां उसका दिन में दो बार शृंगार करती। फूलों से उसके केश सजाये जाते।
गोरी-गोरी मखमल जैसी गलियों पर मेहंदी रची होती, महावर पांव में होता, कभी पाजेब उनमें शोभा पाती तो कभी नूपुर बजते।
वह रानी थी, पटरानी, महारानी झांसी की। वह अंतःपुर की ज्योति थी; लेकिन केवल नाम की रानी नहीं।
वह वीरांगना थी और वीर-बाला। उसके जिन हाथों में मेहंदी रची होती उनसे ही तलवार चलाती। बाण को धनुष पर चढ़ाती, टंकार करती एवं उन्हीं कोमल हाथों में वह भाला साधती और ढाल पकड़ती।
रानी बंदूक तथा पिस्तौल चलाने में भी सिद्धहस्त थी। उसका निशाना अचूक होता, वार कभी खाली नहीं जाता।
ऐसे अवसर पर उसके पैरों में पायल नहीं बजते और न बिछुओं की झनकार होती। वह खूब तेज घोड़ा दौड़ाती, हिरन के पीछे डाल देती। बर्डी या भाला उसके हाथ में होता और वह किसी तरह भी अपने आखेट को हाथ से जाने नहीं देती।
लक्ष्मीबाई की दिनचर्या अपने में अद्वितीय थी।
प्रातः सबसे पहिले उठकर वह पति के दर्शन करती, उनकी चरणा-रज माथे से लगा, फिर दैनिक कार्यों से निवृत्त होती।
दिन का पहला पहर व्यतीत नहीं हो पाता और वह अपना अध्ययन कार्य समाप्त कर लेती। उसके अध्यपन के ग्रंथ एक ओर धार्मिक थे तो दूसरी तरफ वीर-रस से पूर्ण ।
रामायण से वह नीति की शिक्षा लेती, इसमें उसे नीति मिलती। महाभारत उसे उत्थान और पतन का आभास कराता।
शिवाजी और महाराणा प्रताप की कहानियां उसमें जीवन फूंकतीं, देश-प्रेम जगाती, स्वाधीनता के यह पुजारी उसके लिए प्रशंसनीय ही नहीं पूज्य थे।
वह इन देश-भक्तों के जीवन से यह प्रेरणा लेती कि ईस्ट-इण्डिया कंपनी की दासता से वह मुक्त होकर रहेगी, अपनी झांसी को स्वतंत्र करेगी।
अध्ययन के बाद लक्ष्मीबाई अल्पाहार करती, फिर वह लगभग एक प्रहर बाद शस्त्र-अस्त्र चलाने का अभ्यास करती।
दोपहर दो वह पति के साथ बैठ राजनीति पर विचार करती और तीसरा पहर होते ही घोड़े पर सवार हो जाती।
कभी घुड़दौड़ को जाती तो कभी शिकार खेलने। रात को घर आती तो गंगाराव उसकी प्रतीक्षा में रत होते।
गंगाधर राव को अपनी पत्नी से बड़ा अनुराग था।
उन्होंने कभी रानी को व्यायाम आदि के लिए मना नहीं किया। उसे पूरी छूट दे रखी थी। उन्हें उस पर अभिमान था।
और क्यों न होता, 'हाथ-कंगन को आरसी क्या' । रानी रात को जब बाहर से लौटती तो राजा के साथ ही भोजन करती।
दोनों में विचार-विमर्श किया जाता, मंत्रारणा होती। गंगाधर राव देखते कि रानी उलझी हुई गुत्थी को तत्काल ही सुलझा देती है और वह भी हंसकर।
फिर रानी अपने राजा के चरण दबाती। यद्यपि राजा इसके लिए उसे बहुत मना करते; लेकिन वह बड़ी हठी थी। नहीं मानती, नहीं मानती। कभी-कभी दम्पती शतरंज खेलने बैठ जाते तो कभी शिकार की बातें होने लगतीं।
राजा गंगाधर राव को उस समय रानी से बहुत बड़ा सहयोग मिलता।
जब वह उनके साथ दरबार में बैठती। वह न्याय करती, प्रजा की बात सुनती। और उसका दुःख-दर्द दूर करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करती। रानी का रनिवास और उसके पास-पड़ोस का वातावरण वीरता का एक अखाड़ा बन गया था।
उसका स्वभाव बड़ा मृदुल था और बुद्धि प्रखर। वह प्रजा और राजा सभी की प्रिय थी। राज-सभा उसके बिना सूनी लगती और उसके भक्त सोचने लगते कि अभी दरबार अधूरा है।
अभी न्याय की देवी नहीं आई। इतनी श्रद्धा थी लोगों की अपनी रानी के प्रति। अब वह चौदह वर्ष की हो गई थी।
रानी ने अपनी सखी-मंडली का विस्तार किया। सुंदर, मुंदर और काशी ये तो उसकी प्रमुख सेविकाएं थीं ही। इसके अतिरिक्त तमाम युवतियां स्वयं आकर सेवा करने लग जातीं; लेकिन वह उनसे सेवा नहीं लेती। उन्हें गले से लगाती।
उनमें वीरों की भावना भरती, देश-प्रेम फूंकती और उसके इस जादू का चमत्कार चंद दिन बाद ही प्रत्यक्ष देखने को मिल जाता। वे ही युवतियां तीर चलातीं, घोड़े की सवारी करतीं, तलवार चलातीं, शिकार खेलने में उसका साथ देतीं।
यही नहीं कि रानी में केवल कोरी वीर-भावना ही थी, वह यौवन का भी महत्त्व समझती थी, उसके सौंदर्य को पहिचानती। उसमें कला थी, जो समय-समय पर मुखरित होती रहती थी।
वह चित्र बनाती-वीरों के। चित्रकारी उसका बहुत प्रिय विषय था। संगीत से भी उसे अनुराग था। वह तानपूरा और सितार बजा लेती।
पक्के गीत गाती-जिनमें पृथ्वीराज और संयोगिता की कहानी होती, वीर हमीर की गाथा और राणा अनुपम त्याग।
लक्ष्मीबाई वीरांगना होते हुए भी बहुत सुकुमार थी।
उसके बदन का ढलाव इस प्रकार था मानो किसी शिल्पी ने सांचे में मूर्ति ढाल दी हो।
उसकी आंखों में सबके प्रति प्यार था, अपनी प्रजा के लिए दुलार।
वह अपने प्रति बहुत बड़े उत्तरदायित्व का अनुभव करती कि वह प्रजा की दीवाल है।
रिआसा उसी के सहारे खड़ी है। उसने मन ही मन यह संकल्प ले लिया था कि वह अपनी झांसी को अंग्रेजों से मुक्त करके ही रहेगी।
वह ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेगी। जल्दी ही वह समय आ जाएगा।
जब कि वह ईस्ट इंडिया कंपनी के पोलिटिकुल एजेंट को अपने राज्य-संबंधी कोई भी हस्तक्षेप नहीं करने देगी।
उसने संकल्प को दुख के रूप में बदल दिया, लेकिन किसी से कहा नहीं-बात मन में ही रखी।
अब रानी लक्ष्मीबाई के ब्याह को नौ वर्ष व्यतीत हो गए थे।
वह षोडषी थी। राजा गंगाधर राव मन ही मन फूले नहीं समा रहे थे, कि उनकी पत्नी गर्भवती थी। उनकी वृद्धावस्था थी।
संतान का होना आवश्यक था वर्ना राज्य का उत्तराधिकारी कौन बनता।
गंगाधरराव को यह चिंता दिन रात सताया करती। यद्यपि उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था और वे किसी प्रकार भी वृद्ध नजर नहीं आते।
अब तो रानी लक्ष्मीबाई फूलों से तौली जाती। जो आता उसके नाज़र उठाता।
राजा कहते, 'ऐ रानी तुम आराम करो। तुम्हें सेवा की जरूरत है। और दासियां कहतीं कि मेरे मुंह में घी शक्कर, रानी जी के लड़का होगा।
सोने का हार लूंगी महारानी जी, एक भी नहीं मानूंगी। बस समझ लो कि झांसी का युवराज जल्दी ही होने वाला है। रानी शर्मा जाती।
वह सखियों की ओर कनखियों से देखने लगती। उसने कभी भी अपनी दासियों को सखियों से कम नहीं समझा।
गर्भावस्था में भी रानी के चेहरे पर पीलापन नहीं आया।
उसके मुंह पर कान्ती ज्यों की त्यों द्युतिमान रही। आखिर वह दिन आ गया जब झांसी का भाग्य अपने हाथ में खुली हुई किताब लेकर उचित न्याय के लिए अवतीर्ण हुआ।
महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र प्रसव किया। तोपों की सलामी दी गई, गोले छूटे। रात को अनार और मेहताब जले। राजमहल के आंगन में शहनाई बजी।
कहीं तबला ठनका और कहीं मृदंग। कहीं हारमोनियम के स्वर सप्तक पर बुलन्द हुए। मंजीरा खूब बजा। ढोलक के साथ महलों में।
हिजड़ों ने सोहर गाए। सरिया का राग अलापा गया। दान बांटा गंगाधर राव ने। कंगलों को भोजन मिला, मंगतों को कपड़े। रियाया भर में खुशी की लहर दौड़ गई कि उनके राजा के राजकुमार हुआ।
रानी लक्ष्मीबाई इस अवसर पर बिल्कुल मौन थी। सुंदर बालक को नहलाती। मुंदर उसे खिलाती।
काशी उस शिशु के भी काजल लगाती, ठीक उसी तरह, जैसे वह रानी की आंखें आंजती थी।
वह पूत की बलाएं लेती, मनौतियां मानती और आशा तथा विश्वास के साथ छाती ठोककर कहती कि हमारा युवराज अंग्रेजों के दांत खट्टे करेगा। उसके राज्य में झांसी अंग्रेजों के अधीन नहीं रहेगी।
रानी पर इन बातों का प्रभाव पड़ता और वह सोचने लगती। कि अगर भविष्य में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति यही रही तो एक दिन देश गुलाम हो जाएगा, दूसरे के अधीन। आजादी कितनी महंगी है और गुलामी कितनी सस्ती।
आजादी त्याग मांगती है और खून। और गुलामी जिंदा को मुर्दा बना देती है आदमी बुजदिल हो जाता है।
नहीं यह नहीं होगा, कभी नहीं होगा। अंग्रेज भारत से जाएंगे, जरूर जाएंगे। वह दिन जल्दी आएगा अब दूर नहीं।
इस तरह कभी-कभी रानी चौंक उठती। वह स्वयं अपनी स्थिति को देखकर हैरान हो जाती।
उसे दिखलाई देता कि पूरब के आकाश में लाल-लाल सूरज निकल रहा है। धरती पर क्षीण कोलाहल है और चिड़ियों का कलरव।
झांसी अपना परिवर्तित रूप देख रही है, भविष्य के दर्पण में। उसमें ज्वाला की लपटें हैं। झांसी जल रही है। चिनगारी शोला में बदल गई। यही गदर की नींव थी।
अन्य राज्यों से भी राजा गंगाधर राव के पास शुभकामनाएं आई। शुभ आशीष और शुभ आशीर्वाद ! उनका पुत्र चिरंजीव रहे, यह प्रत्येक की कामना थी।
रानी लक्ष्मीबाई ने सुंदर-मुंदर और काशी को मुंह मांगा इनाम दिया। उसने देखा कि मारे खुशी के सबकी सब पागल हो रही हैं।
उसे गर्व हो आया अपनी दासियों पर जो उसकी सहेलियों के अनुरूप थीं। वह यह सोचकर गर्व से अपनी छाती फुलाने लगी कि मेरा महिला समाज भी प्रगति की ओर अग्रसर है। सुंदर एक चलता फिरता करिश्मा है।
मुंदर सबको मोह ले ऐसी मन मोहनी माया है और काशी काया है ऐसी जीवट पुतली की जिसकी दूसरी मिसाल नहीं है।
राजा गंगाधर राव दिन भर पुत्र के पास बैठे रहते। वे उसका मुंह ही मुंह निहारा करते।
रानी यह देखकर बहुत प्रसन्न होती। उसी से फूली नहीं समाती। वह पुत्र को उठाकर पति की गोद में दे देती फिर स्वयं अंक में भर उसकी बलाएं लेती। वह मन । ही मन अपनी हार मान रही थी।
किंतु पुत्र के मोह ने उसे जीत लिया था। अपनी यह दुर्बलता वह किसी पर व्यक्त नहीं होने देती। उसका ओज लोगों में साहस भरता।
उसकी हिम्मत परिणाम की कहानी कहने लगती कि वह वीरांगना है, एक राजा की रानी प्रजा उसकी रियाया है। उसे उसका ध्यान रखना है।
लक्ष्मीबाई का पुत्र अब तीन महीने का हो गया था। उसके जन्म के बाद से राजमहल में ऐसा लगता मानो नवजीवन का गया हो। दुनिया बदल गई हो, नया जमाना गुजर रहा हो। घर-घर मंगल-गीत गाए जाते। युवराज के लिए। शुभकामनाएं की जातीं। । झांसी का बच्चा-बच्चा युवराज को चिरंजीव होने का आशीर्वाद दे रहा था।
रानी शिशु के जन्म के बाद अपनी प्रगति भूल गई हो ऐसा नहीं। वह प्रतिदिन व्यायाम करती, घुड़सवारी की।
वह शस्त्र-अस्त्रों का अभ्यास करती। वह मां अवश्य बन गई थी, लेकिन रानी थी स्वामिनी भारत के झांसी प्रदेश की। वह भारतीय गौरव की कड़ी थी। जिसमें युग की पगध्वनि सुनाई देती है।
अब रानी को अपना भविष्य उज्ज्वल दिखलायी पड़ रहा था। उसे लग रहा था कि झांसी का राज्य निष्कण्टक हो जाएगा।
उस पर किसी का प्रभाव और प्रभुत्व नहीं रहेगा। क्योंकि उसके घर में उत्तराधिकारी आ गया है। और जब घर का युवराज मौजूद है। न तो भविष्य में राज्य की बागडोर वही सम्हालेगा।
इस तरह रानी पुत्र का मुंह देखकर भविष्य के लिए निश्चिंत हो गई थी कि अब दुश्मनों का अंत हो जाएगा। और वह शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकेगी।
न रंकजा सुखी है और न रंक
रानी लक्ष्मीबाई के लड़के का देहान्त तीन महीने की आयु में ही हो गया।
पूरे का पूरा नगर शोक में डूब गया। जिसे देखो उसके ही मुंह से हाय निकलती।
लोग कलेजा पकड़कर रह जाते। बड़े-बूढ़े कहते कि झांसी का दिया बुझ रहा है।
रानी की मदद करो। वह समय पड़ने पर दुश्मन से मोर्चा लेगी।
रानी ने शोक को अधिक महत्त्व नहीं दिया। उसने अपने कर्त्तव्य को पहचाना। उसने अपने स्त्री-समाज में प्रशिक्षण आरंभ किया। इस तरह उसने योग्य महिलाओं का एक समूह बना लिया, जिसका एक मात्र उद्देश्य था समाजसेवा।
रानी को पूरे देश की चिंता थी। वह जब अपनी सखियों के समाज में बैठती तो अक्सर कहा करती कि पृथ्वीराज की पराजय के बाद देश कभी आज़ाद नहीं हो सका, यह इतिहास बतलाता है ।
मुसलमान हमलावर देश में आए, उनहोंने खूब लूट-पाट की।
किसी ने अपना साम्राज्य बनाया।
मुगल सदियों तक बने रहे। ये अंग्रेज जो व्यापारी बनकर आए थे, अब हमें लूट रहे हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी का इरादा अच्छा नहीं है, वह पूरे देश को हथिया लेना चाहती है।
कुछ भी हो, मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नहीं दूगी। आजादी के लिए गर्दन उतार दी जाती है। समय बड़ा नाजुक आ गया है। हम सबको संभलकर रहने की जरूरत है।
रानी की बातों से स्त्री-समाज में जोश आता।
उनकी धमनियों में रक्त तेजी के साथ दौड़ने लगता। उनका सीना साहस से फूल-फूल उठता।
और मन में उद्गार आते कि हम लोग स्वतंत्रता संग्राम के लिए कटिबद्ध तैयार हैं, अगर जरूरत पड़ी तो हम सब जाकर रण-क्षेत्र में युद्ध भी करेंगी। अंग्रेजों ने जो चाल सोची है वह कभी सफल नहीं होगी।
सुंदर और मुंदर इतिहास में अधिक रुचि रखती थीं। मुंदर के मन में यह कीड़ा हमेशा रेंगा करता कि अगर आज हमारा देश इन छोटे-छोटे टुकड़ों में न बंटा होता तो यह नौबत न आती। कोई एक-छत्र सम्राट नहीं, यह भारतवर्ष का अभाग्य है ।
एक बात यह ऐसी थी जिसे राजा ही नहीं, रानी की सब दासियां भी समझती थीं।
रानी के चेहरे पर वह रौनक नहीं आती, जो पहले थी।
यह प्रमाण था, इसका कि उसे भी पुत्र का शोक कम नहीं था।
पहिले वह कल्पना की उड़ानें भरती, सुंदर-सुंदर सपने देखती और यह कोशिश करती कि हवा मेरी मुट्ठी में बंद हो जाए।
मैं ईस्ट इंडिया कंपनी से लोहा लूं और झांसी से अंग्रेजों के पैर उखाड़ दूं।
मगर अब रानी उद्देश्य और लक्ष्य स्थिर करने लगी थी।
फिर वह मां बनेगी, उसकी गोद में लाल खेलेगा। इस कहानी को वह भूलकर भी नहीं दुहराती। कारण स्पष्ट था। राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत खराब था।
उन्हें अब अपने अधिक दिन जीने की आशा नहीं रही। एक बार उन्होंने अपनी रानी से सलाह की। वे बोले-“मेरे बाद राज्य का क्या होगा, लक्ष्मीबाई ?
उत्तराधिकारी के बिना राज्य का संचालन कैसे होगा ?
अंग्रेज हम पर पूरी तरह काबिज़ हैं, हम उनके पंजे में हैं।
भगवान् ने भी हमारी हंसी उड़ाई रानी! देखो न, तभी तो गुड़ दिखला कर ईंट मार दी! इससे संतान न होती तो अच्छा था! मैं बहुत दुर्बल हो गया हूं। सदमा मुझे खा गया है, अब मैं अधिक जिंदा नहीं रहूंगा।"
रानी ने एक दीर्घ उच्छ्वास ली और पति की ओर देखकर कहा, “आप नहीं जानते राजा, दुनिया में सब सुख आदमी को कभी नहीं मिलते।
न राजा सुखी है और न रंक। कुछ भी हो हमें हिम्मत से काम लेना है और उत्तराधिकारी नहीं है तो उसका चुनाव करके कोई बालक गोद लेना है।"
बूढ़े गंगाधर राव की भी मुर्दा नसों में एक बार जीवन दौड़ गया।
वे खिल गए फूल की तरह, और धीरे से बोले-“रानी, तुमने रास्ता बतला दिया,
मेरी मुश्किल आसान कर दी। मुझे भरोसा है कि मेरे बाद तुम शासन-सूत्र संभालकर राज्य को बखूबी चला सकोगी।
देर नहीं करनी है। हमें जल्दी ही कोई लड़का गोद ले लेना चाहिए। मैं जानता हूं कि मेरी रानी इस काम में भी मेरी पूरी-पूरी मदद करेगी।"
इस पर रानी मुस्करा उठी और कनखियों से पति की ओर देखने लगी।
तभी गंगाधर राव ने मन बहलाने के लिए एक दूसरी कड़ी छेड़ दी। वे लक्ष्मीबाई की ओर उन्मुख हो मृदु स्वर में बोले-“कई दिन से शतरंज नहीं खेली है रानी। लाओ, चौपड़ बिछाओ, एक बाजी हो जाए।"
बस चौपड़ बिछ गई। उस पर घोड़े, प्यादे, हाथी और वजीर दौड़ने लगे। रानी खिलखिलाकर हंसी और आलोड़ित होकर जोर से बोली-“शह बचाइये श्रीमान्, अब मात में देर नहीं।"
राजा हंस पड़े। वे मौन रहे और उनका वह सुखद मौन रानी को बहुत प्रिय लगा।
इसके बाद दिन बीते, रातें आईं। दुनिया तनिक आगे और बढ़ी।
अंग्रेजों की राज्य-लिप्सा की कूटनीति की खबरें जब रानी सुनती तो उसके तन-बदन में आग लग जाती।
उसे भी अपनी सरकार की ओर से गुप्त भय था। यह मन का चोर वह हमेशा छिपाये रहती।
वह भी समझ गई थी कि राजा गंगाधर राव अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। इसके पूर्व ही उत्तराधिकारी की नियुक्ति हो जाना बहुत ही आवश्यक है।
क्योंकि, सुना है कि ईस्ट इंडिया कंपनी राजा की विधवा को राज्य-कार्य नहीं करने देती, उसकी मासिक या वार्षिक वृत्ति नियुक्त कर देती है। और इस तरह वह धीरे-धीरे राज्य हड़प कर लेती है।
इस तरह रानी की यह कोशिश थी कि जल्दी से जल्दी कोई बालक मिल जाए, जिसे गोद ले लिया जाए।
गंगाधर तथा लक्ष्मीबाई गोद लिया बच्चा
राजा गंगाधर राव और लक्ष्मीबाई अपनी योजना में सफल हो गए।
उन्हें एक बालक मिल गया जो उनके निकट संपर्क में था।
यह था वासुदेवराव नेवाल का का लड़का। राजा ने उसे गोद लेना दृढ़ निश्चय कर लिया।
बात पक्की हो गई। मां-बाप ने हंसकर अपने पांच वर्षीय पुत्र आनंदराव को गंगाधर तथा लक्ष्मीबाई के हाथों में सौंप दिया। शास्त्रीय विधि से गोद लेने की रस्म पूरी की जाने की योजना बनाई जाने लगी।
रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके सखी-समाज में भी हर्ष की लहर दौड़ गई। लड़के का नाम आनंद राव था।
लक्ष्मीबाई ने उसका नाम दामोदर गंगाधर राव रखा क्योंकि उसी नाम से उसे उत्तराधिकारी नियुक्त होना था।
दामोदर गंगाधर राव को गोद लेने की रस्म खूब धूम-धाम से मनाई गई। शास्त्रीय ढंग से उस प्रथा का पूरा-पूरा पालन हुआ। समारोह कुछ दिन चलता रहा। नगर में खूब जश्न मनाया गया। जिसे देखो वही खुशी की लहर में बहा चला जा रहा था।
इस अवसर पर झांसी के संभ्रांत नागरिक, गण्यमान प्रमुख व्यक्ति, ईस्ट इंडिया कंपनी का पोलिटिकल एजेण्ट तथा अंग्रेज उच्च अधिकारी मौजूद थे। सबने राजा गंगाधर राव की सराहना की।
लक्ष्मीबाई का सम्मान स्वीकार किया और झांसी के भावी उत्तराधिकारी युवराज को आशीर्वाद दिया। जनता में घर-घर राजा-रानी की चर्चा थी।
राजा ने संतोष की सांस ली। उनका शरीर जर्जर हो चला था।
खांसी और ज्वर उन्हें कभी मुक्त नहीं करता। वे रोग से लड़ रहे थे और वह विजयी बना था। राज-वैद्य दिन-रात सेवा में उपस्थित रहते; किंतु फिर भी राजा गंगाधर राव स्वास्थ्य लाभ नहीं कर पाते। वे दुर्बल होते जा रहे थे और अब बिल्कुल क्षीण-काय हो रहे थे।
अपनी ढलती उम्र और गिरती अवस्था का राजा को अच्छी तरह बोध था। इसीलिए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार को लिखित भेजा कि बालक दामोदर गंगाधर राव को मैंने, शास्त्र की रीति से गोद ले लिया है।
मेरे मरने के बाद उसे युवराज का पद प्राप्त होगा। झांसी का उत्तराधिकारी वही बनेगा। इस वसीयत के साथ ही साथ राजा ने कंपनी सरकार को यह भी लिखा था कि लक्ष्मीबाई अपनी जिंदगी भर झांसी पर राज्य करेगी। स्वामिनी वही रहेगी और राज-काज भी वही देखेगी।
राजा ईस्ट इंडिया कंपनी के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। पोलिटिकल एजेण्ट के द्वारा जवाब आने को था। उसमें विलंब होती चली गई। राजा रास्ता ही देखते रहे।
अब राजा का स्वास्थ्य बहुत गिर गया था। वे ज्वर-पीड़ित
रहते। खांसी भी उन्हें खूब आती। वे रानी को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते। उपचार निरंतर चल रहा था।
अच्छी से अच्छी गुणकारी औषधियां दी जा रही थीं; लेकिन बुढ़ापे ने जीत लिया था राजा को और रोग उस बुढ़ापे का साथ दे रहा था। अब वे उतने दुखी नहीं थे।
हां, इस बात का अंदेशा उन्हें जरूर था कि कहीं उनकी मृत्यु हो गई और कंपनी सरकार का जवाब न आ पाया तो हो सकता है कि अंग्रेज बदल जाएं। वे दामोदर राव को मेरा उत्तराधिकारी न मानें। अभी मैं मोजूद हूं, मेरा कुछ लिहाज करेंगे।
राजा कभी-कभी अपनी यह दुश्चिंता अपनी रानी पर भी प्रकट करते। आशा और भरोसे को लेकर बात टल जाती।
दिन पर दिन बीतते जा रहे थे मगर ईस्ट इंडिया कंपनी से राजा के पास कोई जवाब नहीं आया।
राजा के गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर रानी दिन-रात चिंतित रहती। वह पति-सेवा को बहुत महत्त्व देती। इसीलिए आजकल सब काम छोड़कर राजा की सेवा में उपस्थित रहती। वह राजा का मन बहलाने का सतत प्रयास करती।
वह उन्हें गीता, रामायण और उपनिषद् पढ़कर सुनाती। कभी-कभी दंपती के बीच धर्म-चर्चा चलने लगती। कहने का अर्थ यह कि रानी राजा को ऊबने नहीं देती। उनका मन बहलाए रहती।
बालक दामोदर राव से रानी लक्ष्मीबाई को विशेष स्नेह था। वह उसे उमंग में आ गोद में भर लेती तो बालक को भी अनुभव होता कि उसकी मां यही है। वह उसके सामने रोता, मचलता, ज़िद करता। रानी उसके नाज़ उठाती, प्यार करती, दुलार से
डांटती और कभी-कभी मीठे क्रोध में आ उसके कान भी गरम कर देती।
राजा मां-बेटे का यह मधुर व्यापार देखकर फूले नहीं समाते। उन्हें भविष्य पर भरोसा होने लगता कि ये दोनों मां-बेटा मिलकर झांसी को नया जीवन देंगे। रानी के अंदर क्रांति की चिनगारी छिपी है।
चिनगारी कभी भी शोला बनकर भड़क सकती है, यह मैं जानता हूं। बालक दामोदर राव रानी की देख-रेख में बड़ा होगा। शिक्षा-दीक्षा भी उसी के द्वारा सम्पन्न होगी। फिर संदेह का प्रश्न ही नहीं उठता।
निश्चय है, कि वह एक दिन योद्धा बनेगा। रानी अपने को चरितार्थ कर रही थी। राजा की अस्वस्थता के कारण वह राज-काज भी देखती। उसमें उसे बहुत समय देना पड़ता।
इसके अतिरिक्त पति की देख-रेख भी बहुत आवश्यक थी; लेकिन फिर भी इन सबसे समय बचाकर वह दामोदर राव पर ध्यान देती। उसकी प्रगति में तनिक भी बाधा नहीं पड़ने देती।
उसका अध्ययन राज-पुरोहित द्वारा सम्पन्न हो रहा था। शस्त्र चलाने की शिक्षा रानी उसे स्वयं देती। उसने उसे घोड़े की सवारी, तैराकी आदि भी सिखलाया।
वह उसके समक्ष सबसे पहिले मां थी फिर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। तत्पश्चात् शिक्षिका थी, गुरुआनी। वह वीर-बाला थी, भारतीय वीरांगना। उसमें गुणों की खान थी, वह मानवी नहीं देवी थी।
समय का पहिया अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था। राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत ही बिगड़ गया था। जिंदगी बिदा के क्षणगिन रही थी। उधर ईस्ट इंडिया कंपनी का जवाब अभी तक नहीं आया था। दामोदर राव की शिक्षा-दीक्षा जोरों से चल रही थी।
रानी कभी सुनती कि अंग्रेजों ने किसी गांव में आग लगा दी। बाजार लूट ली। लोगों को फांसी पर लटका दिया। ये अत्याचार की कहानियां उसके कानों में तेजाब की बूंदों की भांति गिरतीं।
खून में जोश आ जाता और वह जोश से भर जाती। यद्यपि परिस्थितियां अपना रंग दिखला रही थीं, लेकिन फिर भी रानी के किसी कार्य में बाधा नहीं पड़ती। वह प्रगति की ओर अग्रसर थी। वह अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाती।
राजा गंगाधर राव की मृत्यु
राजा गंगाधर राव ने ईस्ट इंडिया कंपनी को जो खबर खरीते द्वारा भेजी थी,
कि दामोदर राव को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है।
उसका जवाब एक लंबा अरसा गुजर गया, नहीं आया। राजा बहुत चिंतित हुए। एक दिन उन्होंने अपनी रानी से कहा-“मुझे इसमें कंपनी की कोई चाल मालूम होती है।
आखिर खरीते का जवाब अब तक क्यों नहीं आया।
पोलिटिकल एजेंट से बात हुई। उसके रुख से टालमटोल नजर आता है। मेरा समय लगता है कि अब करीब आ गया है।
खांसी एक मिनट के लिए भी सांस नहीं लेने देती।"
रानी को भी भविष्य की चिंता थी; किंतु वह निरुत्साहित नहीं होती। साहसपूर्वक पति को जवाब देती।
वह कहती-“कंपनी सरकार डाल-डाल चलेगी तो मैं पात-पात डोलूंगी। हमारी योजना में कोई भी हेर-फेर नहीं होगा और न हम इसे सहन ही करेंगे।"
राजा को यह सुनकर प्रसन्नता होती, मगर वे जीवन से निराश हो चुके थे। उन्हें लगता कि मृत्यु उनके सामने खड़ी है।
यह मानव स्वभाव है कि प्रत्येक को मौत से डर लगता है।
राजा भी भगवान् से जिंदगी की भीख मांग रहे थे कि काश वे तब तक जीवित रहते जब तक दामोदर राव युवा नहीं हो जाता। लेकिन होनहार के आगे किसी की नहीं चलती।
आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ है। राजा गंगाधर राव कंपनी के जवाब की प्रतीक्षा ही करते रहे। और उनका अंत निकट आ गया।
इक्कीस नवंबर अठारह सौ तिरपन में राजा गंगाधर राव ने शरीर त्याग दिया। रानी छाती पीटकर रह गई। उसने अपना माथा धुन डाला।
उसे अपने महल में अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगा। सुंदर रानी को समझाती।
सुंदर उससे कहती कि राजकुमार का मुंह देखो रानी जी, अब आपकी जिंदगी का वही सहारा है।
काशी अपनी स्वामिनी के साथ बैठकर आंसू बहाती, वह भी अवसर पाकर लक्ष्मीबाई को समझाती।
उससे कहती कि धीरज रखो रानी जी समाई से काम लो। दुःख जब पहाड़ होकर टूटता है तो आदमी उसके नीचे दब जाता है।
यह शोक का समय नहीं; हमें भविष्य को भी देखना है। कंपनी सरकार कहीं कोई नया फरमान न जारी कर दे, मुझे इसका डर है।
रानी सबकी बातें सुनती। वह ठंडी आहे भरती, लंबी सांसें लेती। दामोदर राव की ओर देखती, तो पाती वह पौधा है।
उसे वृक्ष बनने में अभी काफी समय लगेगा। तब तक मुझे बहुत ही सावधान रहने की जरूरत है। अगर कहीं झांसी हाथ से निकल गई तो पति के नाम को बट्टा लगेगा।
दामोदर राव का भविष्य अंधकार में बदल जाएगा।
झांसी की प्रजा और राज्य सभा ने दामोदर राव को अपना युवराज मान लिया था।
वह राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। रानी अब भी कंपनी के जवाब की प्रतीक्षा कर रही थी। पोलिटिकल एजेण्ट के पास उसने कई बार अपने आदमी भेजे; लेकिन भी जवाब नहीं मिला।
अठारह वर्ष की छोटी सी उम्र में ही रानी को वैधव्य का दुःख भोगना पड़ा।
वह राजा की विधवा थी और राज्य का उत्तराधिकारी था दामोदर राव; किंतु अभी वह नाबालिब था अतः राज्य का सारा काम रानी स्वयं देखती।
वह न्याय करती, प्रजा का दुःख दूर करने का प्रयत्न करती।
छोटे से लेकर बड़े तक की सभी की बात सुनती। अंग्रेजों की ओर से वह निश्चिंत नहीं थी। उन्हें वह अपना ही नहीं देश का दुश्मन समझती थी।
प्रजा में रानी के राज्य कार्य की सराहना होती।
जिसे देखो वही कहता कि रानी अपनी रिआया के साथ स्नेह पूर्ण व्यवहार करती है।
वह प्रजा के दुःख-दर्द को अपना दुःख समझती। वह अंग्रेजों की दासता के खिलाफ है। अंग्रेजी सेना जो झांसी में रहती है और जिसका खर्च झांसी राज्य से दिया जाता है।
यह रानी को नापसंद है; लेकिन अभी बोलने का अवसर नहीं है इसीलिए वह . चुप है।
समय आने पर रानी चंडी बन जाएगी, यह सभी जानते थे।
रानी को अकारण क्रोध कभी नहीं आता और जब आता तो उसका कारण होता और वह जल्दी नहीं जाता।
यों उसने शांत-चिंत्त पाया था और सरल स्वभाव। उसके पास जो कोई भी जाता वह बिना नहीं रहता।
रानी का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि अपराधी का साहस नहीं होता कि उसके सामने झूठ बोल प्रभावित हुए जाए। वह अपराध स्वीकार कर लेता और दया की देवी रानी उसे क्षमा कर देती।
झांसी के दो एक नए दुश्मन और थे जो बहुत दिनों से झांसी पर आंख लगाए बैठे थे। इनमें सदाशिव राव होल्कर का नाम सबसे पहले आता।
रानी अपने इस दुश्मन को अच्छी तरह समझती थी। वह उससे पूर्णतया सावधान थी।
रानी पति की मृत्यु के बाद निष्कंटक होकर झांसी में राज्य कर रही थी।
उसने राजगद्दी पर दामोदर राव को बैठा रखा था। शासन सूत्र उसके हाथ में था। वह बड़ी कुशलता से राज्य का संचालन करती।
प्रजा और राज्य सभा में सबको प्रसन्न रखती। वह मृदुभाषिणी थी, इसीलिए प्रत्येक उसे श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता।
सभी के लिए वह सम्मान की पात्री थी। उसमें देश-भक्ति थी जो उसकी सबसे बड़ी दासी थी।
रानी इक्कीस नवंबर अठारह सौ तिरेपन से लेकर छब्बीस फरवरी अठारह सौ चौव्वन तक। निर्विघ्न राज्य करती रही।
उसके सामने कोई भी बाधा नहीं आई।
हां ईस्ट इंडिया कंपनी से जवाब अब तक नहीं आया था। रानी को उसकी बेसब्री के साथ प्रतीक्षा थी। उसकी चिंता का यह एक मुख्य कारण था।
रानी को क्रोध आया
सत्ताईस फरवरी अठारह सौ चौव्वन में ईस्ट इंडिया कंपनी का एक आदेश रानी लक्ष्मीबाई को मिला
जिसे सुनकर वह चौंक गई और उसे अत्यंत क्रोध आया; किंतु किसी तरह उसने परिस्थिति पर काबू पाया।
कंपनी सरकार ने रानी को यह आज्ञा दी थी कि उसे मासिक वृत्ति पांच हजार रुपए महीने की दी जाएगी।
वह किला छोड़ दे और नगर के महल में रहे। दामोदर राव को जो राजा ने गोद लिया है, वह कंपनी स्वीकार नहीं करती है।
निःसंतान राजा की मृत्यु पर रियासत कंपनी सरकार अपने राज्य में मिला लेती है।
रानी ने बड़ी कोशिश की, पोलिटिकल एजेण्ट से बात की; लेकिन उसे पुत्र गोद की स्वीकृति न मिली।
दामोदर राव को नाबालिग करार करके राज्य की देख-रेख कंपनी सरकार करने लगी।
झांसी का राज्य बुंदेलखंड के पोलिटिकल एजेण्ट के सुपुर्द कर दिया गया।
रानी को पांच हजार रुपया महीना देना मंजूर किया गया। रानी को इससे बहुत दुःख हुआ; लेकिन क्या करती, विवश थी।
उसने इस विषय पर बहुत सोचा, खूब विचार किया।
उसके अंतःकरण ने कहा कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को कभी नहीं दूंगी। उनकी चाल मुझे मालूम है। उनकी नीयत अच्छी नहीं है।
रानी यह भी जानती थी कि अंग्रेज बड़े धूर्त हैं उनके साथ युद्ध और हठधर्मी से काम नहीं चलेगा।
उनके साथ चाणक्य नीति ही सफल हो सकती है। अभी जो कुछ कंपनी का आदेश आया। मुझे वह स्वीकार कर लेना चाहिए इसी में राजा और प्रजा दोनों की भलाई है।
इस तरह रानी ने धैर्य से काम लिया। उसने समाई के बूंट पिए और पोलिटिकल एजेण्ट से कह दिया कि मुझे कंपनी सरकार का प्रस्ताव मंजूर है।
कहने को तो रानी ने पोलिटिकल एजेंट से यह कह दिया लेकिन उसकी आत्मा भीतर ही भीतर उसे धिक्कारती रही, मन कायल करता रहा उसे कि लक्ष्मीबाई तुमने यह क्या किया; लेकिन रानी को संतोष था कि इस समय उसने युक्ति से काम लिया है।
उग्र होने से काम बिगड़ सकता था।
क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी प्रार्थनाओं को ठुकरा देती।
न्याय की मांगों को सुनी अनसुनी कर जाती उस पर किसी को विश्वास नहीं होता। रानी जानती थी कि कंपनी सरकार जो चाहेगी वह करके रहेगी।
इसलिए उसने चाणक्य नीति से काम लिया था।
उसने मासिक वृत्ति स्वीकार कर ली।
उसमें तनिक भी मीन-मेख नहीं थी, क्योंकि अंग्रेजों की कूटनीति को वह भली प्रकार जानती थी।
रानी अब बहुत अधिक गंभीर रहने लगी थी।
उसे लगता कि एक दिन झांसी अंग्रेजों को हाथ में चली जाएगी। उनका षड्यंत्र ही कुछ इस प्रकार का है।
वह अपनी दासियों से अपने मन की बात कहती तो चित्त का बोझ कुछ हल्का हो जाता और वह ठंडी सांस लेकर सोचने लगती कि भविष्य के पर्दे में या तो निर्माण खड़ा हो मुस्करा रहा होगा या विनाश की बांहें फैल रही होंगी।
भारत का भाग्य डगमगा रहा है न जाने किश्ती पार लगेगी या नाव बीच भंवर में ही डूब जाएगी।
रानी दुश्चिंताओं से भरी रहती।
वह कभी निश्चिंत होकर नहीं बैठती।
उसके मन में एक बात आती तो दूसरी जाती। पति की मृत्यु के बाद उसने एक नए संसार की कल्पना की थी, जिसमें वह राजमाता थी और पुत्र दामोदर राव की संरक्षिका भी।
वह रानी अवश्य कही जाएगी; लेकिन राज-माता के पद पर आसीन न होगी।
ईस्ट इंडिया कंपनी की गोरी फौज जो झांसी में रहती है और जिसका खर्च राज्य देता है।
दामोदर राव जब तक वयस्क होगा, तब तक यहां की दुनिया ही बदल जाएगी। नागरिक मेरे साथ हैं, सामंत भी सिर झुकाते हैं। उसे शक था केवल पोलिटिकल एजेण्ट पर। कि यह आदमी मन का काला है, मन की बात नहीं बतलाता।
रानी ने अभी किला नहीं छोड़ा था।
वह तनिक भी नहीं घबड़ायी।
उसने धैर्यपूर्वक काम लिया। अबला होने पर भी वह साहस नहीं हारी। वह जीवन में केवल दो बार रोई थी।
उस दिन, जिस दिन उसकी गोद खाली हुई। फिर तब, जब उसकी मांग का सिंदूर धुल गया, उसकी चूड़ियां फोड़ दी गईं। वह जब अधिक चिंतित होती तो गंभीर दिखलाई देती। वह दूर तक देखती।
उसका मन हवा को मंजिल बनाता। वह उग्र हो उठती और उसे अंग्रेजों की नीति पर बरबस क्रोध आ जाता।
रानी को अब पूरी नींद नहीं आती। वह सोते-सोते चौंक जाती।
आंखें खोल सोचने लगती। उस पर दामोदर राव का का भार था। वह झांसी का कर्तव्य निभाना नहीं भूलती।
उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दामोदर राव को गोद लेने की अनुमति नहीं दी। उसने यह भी स्वीकार नहीं किया कि रानी झांसी का शासन-सूत्र संभाले।
सुंदर, मुंदर और काशी। ये तीनों रानी की भुजाएं थीं।
रानी को उन पर गर्व था; किंतु शक्ति की बात मन में आते ही रानी यह सोचने लगती कि तिनका तूफान से टक्कर नहीं ले सकता। अंग्रेजों की फौज बहुत बड़ी है।
उसके लिए युक्ति चाहिए, शक्ति नहीं। तदबीर से तकदीर बदली जाती है, आदमी यह शुरू से कहता आया है।
रानी विचारों में जब खोती, तो घंटों खोयी ही रहती।
उसे लगता कि उसके सामने दलदल है। दलदल उबल रहा है, उसमें बुलबुले उठ रहे हैं।
उसका एक नहीं, दोनों पैर उसमें फंस गए हैं। वह उससे निकलने का प्रयत्न करती है, लेकिन अफसोस! वह उलझती जा रही है। उसकी उलझन उसके लिए समस्या हो रही है।
रानी ने किला छोड़ दिया
सत्ताईस फरवरी सन् 1954 में ईस्ट इंडिया कंपनी का लक्ष्मीबाई को यह आदेश मिला था कि वह मासिक वृत्ति स्वीकार कर ले।
उसे राज्य से कोई मतलब नहीं रहेगा।
उसके कुछ दिन बाद ही 25 मार्च 1854 को कंपनी सरकार ने झांसी के खजाने से 6 लाख रुपया निकाल लिया।
रानी कुछ नहीं कर पायी, वह देखती रह गई। पोलिटिकल एजेण्ट ने उसके संतोष के लिए उसे आश्वासन दिया।
उसने बतलाया कि कंपनी सरकार यह छः लाख रुपया दामोदर राव को बालिग होने पर ब्याज-सहित लौटा देगी। इस तरह रुपया ईस्ट इंडिया कंपनी के सरकारी खजाने में जमा हो गया।
प्रगट में रानी कुछ नहीं कह पाई; लेकिन भीतर ही भीतर उसके तन-बदन में आग लग गई।
उसने बहुत जब्त किया, समाई से काम लिया। उसे स्वयं अपने से डर लगने लगा कि कहीं उसके भीतर की लक्ष्मीबाई रणचंडी का रूप धारण न कर ले। रानी अंग्रेजों की करतूत देख रही थी।
उसने पांच हजार रुपये हीरे-जवाहरात, की अपने लिए वृत्ति स्वीकार कर ली थी, फिर भी उसे आदेश था कि वह किला छोड़ दे और शहर के महल में रहे।
यह कहा गया कि जब तक दामोदर राव बालिग नहीं होता तब तक राज्य की बागडोर कंपनी सरकार के हाथ में रहेगी और तभी वह छः लाख रुपया भी उसे मिश्रधन के रूप में मिल जाएगा।
इसके अलावा सोने-चांदी के गहने, मोती, पन्ना आदि के आभूषण, रानी को सौंप दिए गए कि जब तक दामोदर राव युवा नहीं होता, ये जवाहरात और ज़ेवर रानी के पास धरोहर रहेंगे।
सांझ का सूरज अस्ताचल की गोद में जा चुका था।
सान्ध्य-बेला थी। किसी का मिलन-पर्व। पक्षी बसेरे पर जा चुके थे।
उनका कलरव शांत हो चुका था। एक दासी ने आकर सूचना दी कि-“रानी साहब शहर के महल की सफाई हो गई है।
तशरीफ ले चलिए, सवारी बाहर खड़ी है।
आज तीसरी बार रोयी रानी। उसकी आंखों से दो बड़े-बड़े आंसू गिरे।
उसने पति का शयन-कक्ष देखा और पुत्र का पालना।
उसने दरबार देखा, फिर देखा अपनी सखियों की ओर। मुंदर से आंखें मिलीं तो वे भर आईं और सुंदर से दृष्टि का साक्षात्कार होते ही आंसू पलकों तक आ गए।
फिर काशी की ओर देख नहीं पाई रानी, आंसू चू पड़े।
रानी ने किला छोड़ दिया।
वह नगर के महल में चली आयी। दामोदर राव उसके साथ था।
वह उसे अपनी जिंदगी का सहारा समझती। उसका सखी-समाज उसके साथ आया था, किले में कोई नहीं रहा। उसके विश्वस्त सभासद भी उसके साथ थे।
धीरे-धीरे एक साल बीत गया। रानी को ईस्ट इंडिया कंपनी से जो पांच हजार रुपये की पेंशन बंधी थी, वह प्रतिमास मिल जाती।
रानी भी राज्यकार्य में हस्तक्षेप नहीं करती। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी, जब दामोदर राव जवान होगा।
कंपनी सरकार के प्रति रानी के मन में विद्रोह की भावना घर कर गई थी। वह अंग्रेजों से न्याय चाहती थी, लेकिन वहां सुनवाई नहीं होती। किसी की बात पर भी ध्यान नहीं दिया जाता।
देश की जनता बहुत दुखी थी। वह अत्याचार सहते-सहते दुखिया हो गई थी। किसानों से कर बेरहमी से वसूल किया जाता।
न देने पर उनके जानवर खोल लिए जाते। झगड़ा करने पर उनकी झोंपड़ी जला दी लाती। यदि कोई हमलावर होता तो उसे गोली से उड़ा दिया जाता।
इस तरह देश क्रांति के रंग में रंग रहा था। लोगों के मुंह बंद थे; लेकिन उनके भीतर आजादी की आग जल रही थी।
10 मई को प्रातःकाल मेरठ की छावनी में सैनिकों ने कुछ गड़बड़ी की।
यह सन् 1859 था। गदर की नींव यहीं से पड़ी। इंगलैंड से भारत में जो कारतूस आते थे, उन पर गाय और सूअर की चर्बी लगी होती।
उनका प्रयोग करने से पहिले उन्हें दांतों से काटना पड़ता था। भारतीय सैनिक इससे परहेज करते। 10 मई 1859 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने कारतूस चलाने से इनकार कर दिया। वे विद्रोही हो गए।
रानी को यह समाचार मिला। वह भी योजना बनाने लगी कि अब वह समय दूर नहीं, जब कि वह अंग्रेजों से लोहा लेगी।
रानी अपने सखी-समाज में बैठी देर तक मंत्रणा करती रही। उसके बाद ही उसे नित्य नए समाचार मिलने लगे, कि दिल्ली में
भी क्रांति की लहर दौड़ गई है। भारतीय सैनिक अंग्रेजों के दुश्मन हो रहे हैं। आगरा में भी हलचल मच गई।
अंग्रेजों की रेजिडेंसी में भगदड़ मच गई।
रानी ने दोनों मुट्ठियां बांधी, अपनी बांहों को तौला और फिर भाला उठाया हाथ में।
वह देवी के सम्मुख नत हो गयी, और बोली, “मां दुर्गे! मैं रणचण्डी बनूंगी, मेरी इच्छा पूरी हो मां! मैं देश की आजादी के लिए लडूंगी। भगवती दुर्गा मुझे शक्ति दे।"
बस फिर क्या था, रानी का महल एक अच्छा-खासा अखाड़ा बन गया।
दिन भर वहां शस्त्र-अस्त्रों का अभ्यास होता। सेना का मोर्चा बनाया जाता। उसकी ब्यूह-रचना कभी काशी करती, कभी सुंदर। मुंदर का हाथ कमाल का था। वह तलवार बहुत अच्छी चलाती।
बालक दामोदर राव भी पीछे नहीं रहता, वह भी उस अभ्यास में भाग लेता। रानी को यह देखकर प्रसन्नता होती।
वह कभी-कभी अपने सहयोगी रामचन्द्र राव से कह देती-“देखो, राव! दामोदर राव शूर-वीर होगा। इसीलिए उसकी शिक्षा का भार मैंने अपने ऊपर ले रखा है।"
झांसी के किले में अंग्रेज सैनिकों से भारतीय सैनिकों की संख्या अधिक थी।
दोनों पक्षों में असंतोष फैलता जा रहा था। चिनगारी भीतर ही भीतर सुलग रही थी। वह एक दिन भड़कने वाली थी। रानी को भी इस रहस्य का पता था।
वह अवसर की प्रतीक्षा में थी कि तनिक भी विद्रोह भड़के और मैं तलवार लेकर अंग्रेजों के सामने मैदान में आ जाऊं।
ईस्ट इंडिया कंपनी हाय-हाय
ईस्ट इंडिया कंपनी और रानी लक्ष्मी बाई की कहानी | रानी लक्ष्मी बाई और ईस्ट इंडिया कंपनी
दस मई, अठारह सौ सत्तावन को मेरठ की छावनी में भारतीय सैनिकों के बीच जो असंतोष फैला।
मंगल पांडे जो उनका नायक बना उसे-ईस्ट इंडिया कंपनी ने फांसी पर लटका दिया।
क्रांतिक की लहर सारे देश में दौड़ गई।
कोई भी नगर अछूता नहीं छूटा।
लखनऊ, कानपुर, आगरा, देहली, इटावा, अलीगढ़, ग्वालियर, पटना, झांसी और अयोध्या में विद्रोहियों ने नारे बुलंद किए-“फिरंगियों का नाश हो।
भारत आजाद हो। धर्म का राज हो।" यह गगन भेदी नारे लगाए जाने लगे।
अंग्रेजों को जहां पाया जाता उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता। उन फिरंगी नर-पिशाचों को रुधिर की गंगा में बहाना प्रत्येक भारतीय अपना कर्त्तव्य समझता था।
पांच जून, अठारह सौ सत्तावन को झांसी के किले में जितने भी अंग्रेज अफसर और अंग्रेज सैनिक थे उन्हें भारतीय सैनिकों ने मौत के घाट उतार दिया। इससे अंग्रेजों की रेजीडेंसी में बड़ी हलचल मच गई।
अंग्रेज अफसर अपने स्त्री बच्चों को लेकर झांसी से भागने लगे।
इधर सैनिकों का नारा बुलंद हो रहा था-"फिरंगियों का नाश हो।
अंग्रेजों का नाश हो। ईस्ट इंडिया कंपनी हाय-हाय!" रानी लक्ष्मीबाई ने यह स्थिति देख अपना दूत और हरकारा बिठूर भेजा।
उसने अपने बचपन के साथी नानाराव को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए कहा।
उसने निमंत्रण भेजा कि नाना राव झांसी आए और उसके साथ मिलकर अंग्रेजों से मोर्चा ले।
जब से राजा की मृत्यु हुई थी और ईस्ट इंडिया कंपनी ने रानी को पुत्र गोद लेने की अनुमति नहीं दी।
तब से नानाराव कई बार झांसी आ चुके थे। उनकी और रानी की खूब पटती थी। दोनों बचपन में साथ ही साथ खेले और संग ही संग बड़े हुए थे।
रानी रोज सुनती कि आज कानपुर के सैनिकों ने बगावत कर दी।
बहुत से अंग्रेज मार डाले गए। फिर उसे समाचार मिलता कि अलीगढ़ में मुसलमान सैनिकों ने अंग्रेजों की रेजीडेंसी पर हमला कर दिया। अयोध्या में भी आग का खेल खेला गया।
अंग्रेज जिंदा जलाए गए। उनके स्त्री बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया। रानी नाना की राह देख रही थी। कि उसकी फौजे आ जाएं। फिर वह कंपनी सरकार पर अचानक हमला करेगी।
पोलिटिकल एजेण्ट घबड़ाकर झांसी से भाग गया। उसने जाकर ईस्ट इंडिया कंपनी को सूचना दी कि झांसी में विद्रोह की आग भड़क उठी है।
रानी लक्ष्मीबाई युद्ध के लिए कमर कसे तैयार खड़ी थी वह रास्ता देख रही थी तो केवल नाना राव का।
दामोदर राव को उसने कलेजे से लगा रखा था। उसे एक क्षण के लिए भी अपने से पृथक् नहीं होने देती।
मुंदर रानी को उकसाती, वह कहती कि रानी जी, यही समय है हमला करके किले पर अपना अधिकार कर लो। अंग्रेजों के दांत खट्टे हो चुके हैं।
अब वे सिर नहीं उठाएंगे।
और सुंदर रानी को आकाश पर चढ़ा देती। वह भूमिका बांधकर कहती कि रानी जी अंग्रेजों की रेजिडेंसी का बुरा हाल है, कोई भी बाहर नहीं निकलता।
यही तो मौका है महारानी। सबको इकट्ठा कर हमला बोल दो, बस किला हमारे हाथ में होगा।
काशी कहती कि किला हमारा है अंग्रेजों के बाप का नहीं। किले पर अधिकार कर लो रानी जी, वह आपके पूर्वजों की संपत्ति है। नाश हो इन फिरंगियों का, इनका नाम निशान मिटा दो।
इन्होंने आकर पूरे देश को तबाह और बरबाद कर दिया है ।
यह सब सुन-सुन कर रानी की धमनियों में रक्त तेजी के साथ दौड़ने लगता।
उसमें जोश ही नहीं आता, आ जाता उबाल। फिर भी वह अपने पर काबू पाती और सोच समझकर कदम उठाती।
झांसी के किले में हुई दुर्घटना का समाचार ईस्ट इंडिया कंपनी को पहुंच चुका था।
वहां से विद्रोहियों के दमन के लिए एक विशाल सेना चल पड़ी थी, जो झांसी की ओर आ रही थी। रानी को इस बात का पता था। वह भी जागरूक थी।
उसने हरकारे की राह देखी, जो नानाराव के पास पत्र लेकर गया था। वह सोच रही थी कि जब तक सहयोगी साथ नहीं होंगे अंग्रेजों के साथ युद्ध में विजय होना असंभव है।
विद्रोह की लहर नगर भर में दौड़ रही थी, लेकिन रानी शांत थी, खामोश।
ऐसा लगता जैसे उसे इस विद्रोह से कोई मतलब नहीं है और न उसमें उसका हाथ है। अंग्रेज उसकी ओर से पूर्णतया निश्चिंत रहें इसलिए उसने यह चाल सोची थी।
रानी की अवस्था अधिक नहीं थी, लेकिन फिर भी वह विवेक और बुद्धि से काम लेती। वह किसी भी कार्य में जल्दी नहीं करती, यह उसका सिद्धांत था। उसके साथी योद्धा उसके आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब रानी आज्ञा दे और हम लोग अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ें।
रानी अपनी योजना को कार्यान्वित करने की जल्दी में थी कि दो तीन रियासतों से उसे सहायता मिल जाए तो फिर वह एक सामूहिक रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी से मोर्चा ले; क्योंकि कंपनी सरकार की सैन्यशक्ति बड़ी प्रबल थी।
रानी लक्ष्मीबाई अपने उद्देश्य पर स्थित थी। उसकी टेक थी कि अंग्रेजों को देश से निकाल दिया जाए। ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभुत्व का अंत हो जाए। रानी इस सब के लिए प्रयत्नशील थी; लेकिन अभी उसे अवसर नहीं मिल पाया था।
रानी के पास किले के सैनिक भी आते और उससे विचार-विमर्श करते। रानी उन्हें सान्त्वना देती और समझाकर कहती कि धीरज से काम लो भाई।
सांप के बिल में हाथ डालने से पहले उसका नतीजा तो सोच लो।
ईस्ट इंडिया कंपनी की ताकत बहुत बड़ी है, उसके साथ विशाल सेना है, उसका तोप खाना बहुत भारी है।
अभी तक अंग्रेज तोपों के बल पर ही जीते हैं। छल-प्रपंच और कूटनीति उसका स्वभाव है।
मनुष्य बदला जा सकता है लेकिन उसका स्वभाव नहीं।
रानी किले में पहुंची
जिन भारतीय सैनिकों ने झांसी के किले में वहां स्थित अंग्रेजों का सफाया कर दिया था,
वे एक दिन रानी के पास आए और उनसे विनम्र प्रार्थना की कि रानी उनका साथ दे।
उसकी प्रेरणा से उन्हें नया बल मिलेगा। उन सैनिकों ने रानी से यह भी कहा कि वे विद्रोह में शामिल होने के लिए राजधानी देहली जाएंगे।
वहां जाकर अंग्रेजों से लोहा लेंगे। उनके दात खट्टे करेंगे।
पहले तो रानी ने उन्हें समझाया और झांसी में ही रहने की सलाह दी। लेकिन फिर वह दूसरी ओर मुड़ गयी। उसमें उन्हें देहली जाने की।
अनुमति दे दी। सैनिक खाली हाथ थे। उनके पास एक पैसा भी नहीं था। यह देख रानी ने लगभग एक लाख रुपये के जेवर उन सैनिकों के सुपर्द कर दिए कि यह पूंजी उनके रास्ते के खर्च में काम आएगी।
इससे सैनिकों का उत्साह चौगुना बढ़ गया। वे सब छाती ठोककर देहली की ओर चल पड़े।
रानी ने जब उस काफिले को कूच करते देखा तो उसे लगा कि कुछ दिन बाद ही इसी झांसी में युद्ध की आग बरसेगी।
एक ओर ईस्ट इंडिया कंपनी होगी और दूसरी ओर पूरी झांसी। खून की नदियां बहेंगी। लोथों पर लोथें गिरेंगी। आजादी सस्ती नहीं होती उसके भाल में खून का टीका लगता है।
रानी अपने सखी समाज के प्रशिक्षण में तनिक भी कमी नहीं होने देती। उनकी छोटी सी सेना रिहर्सल में रोज झांसी का मोर्चा बनाती।
उसे दुश्मन के हाथों से छीना जाता।
रानी सैन्य संचालन में बहुत ही कुशल थी।
उसे अपने पर भरोसा था, एक आत्मविश्वास।
वह देख रही थी कि कोई भी भारतीय ऐसा नहीं। जिसके हृदय में अंग्रेजों के लिए स्थान हो। गद्दार और देशद्रोहियों की बात और थी।
रानी किले में पहुंची।
उसने वहां अपना अधिकार कर लिया।
उसने शासन-सूत्र अपने हाथ में ले लिया। जिस समय किले में उसका दरबार लगा और वह गद्दी पर जाकर बैठी तो सिपाहियों ने नारे लगाए। खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का अमल महारानी झांसी का।
झांसी के बच्चे-बच्चे को प्रसन्नता थी कि उनके राजय में उनकी प्रिय रानी की सत्ता फिर हो गयी है।
लोग आपस में संगठित हो रहे थे। वे एकता के सूत्र में बंधने के इच्छुक थे। क्या हिंदू क्या मुसलमान, सभी अंग्रेजों से देश को बचाना चाहते थे।
राज्य की बागडोर हाथ में लेते हुए रानी ने सबसे पहले ध्यान अपने तोपखाने पर दिया।
बारूदखाने में बारूद की कमी नहीं थी। प्रशिक्षण जारी था। पुरुष ही नहीं महिलाएं भी जो किले में थीं वे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थीं। रानी जानती थी कि कंपनी सरकार के पास जब यह खबर पहुंचेगी कि झांसी पर हुकूमत मेरी
हो गई है और वहां के किले में तैनात सभी अंग्रेज अफसर, भारतीय सिपाहियों द्वारा यमलोक पहुंचा दिए गए हैं तो आफत आएगी।
एक बार झांसी पर अंग्रेजों की चढ़ाई बड़े जोर से होगी। सुना है अंग्रेज बड़े जालिम हैं।
वे तोप के सामने खड़ा करके गोले से उड़ा देते हैं। वे जिंदा ही जला देते और फांसी पर लटका देते हैं। वे बड़े निर्दयी हैं, उन्हें किसी पर भी दया नहीं आती।
रानी ने इसीलिए युद्ध की सारी तैयारियां करनी आरंभ कर दीं। तेजी से हथियार बनने लगे।
रसद भी किले के अंदर इकट्ठी की जाने लगी। प्रबंध यह किया जा रहा था कि अगर अंग्रेजी सेना ने किले को चारों तरफ से घेर लिया तो किले के अंदर से ही ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा। कब तक घेरा डाले रहेंगे अंग्रेज! एक बार वह हार मानकर चले जाएंगे।
रानी ने बिठूर सहायता के लिए नानाराव को पत्र लिखा था।
इसके अलावा उसने दो एक पड़ोसी राज्यों से भी सहयोग की अपील की थी।
उसे आशा थी कि बिठूर से उसके लिए सैनिक सहायता जरूर आएगी।
इसीलिए वह प्रतीक्षा कर रही थी कि अवसर अब निकट है। अंग्रेजी सरकार कभी भी उस पर जुल्म बढ़ा सकती है।
रानी तनिक भी गाफिल नहीं थी। उसे उठते-बैठते, सोते-जागते और चलते-फिरते देश की चिंता थी।
उसे लग रहा था पूरा समूचा देश एक दिन अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा क्योंकि इन फिरंगियों के पैर यहां जहां देखो थे वहीं जम रहे हैं। वे पक्के जादूगर हैं, जादूगर। सब्जबाग दिखलाकर वह आदमी की मन की बात पूछ लेते हैं।
रानी ने किले में युद्ध संबंधी सारी व्यवस्था कर रखी थी। वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बैठती। कुछ न कुछ करती ही रहती।
रानी लक्ष्मीबाई अपने को अकेली नहीं समझती। उसकी धारणा थी कि सुंदर और मुंदर उसकी दोनों भुजाएं हैं, और काशी है उसके कदम। जिसके सम्मुख मंजिल स्वयं आकर खड़ी हो जाती रानी दामोदर राव पर जान देती।
उसकी इतनी अधिक देखरेख रखती कि एक क्षण भी उसे अपने से पृथक् नहीं करती। वह जानती थी कि दामोदर राव का जीवन कितना मूल्यवान है।
यदि वह न रहा तो कंपनी सरकार वह छः लाख रुपया ब्याज सहित कभी नहीं लौटाएगी जो ब्याज सहित दामोदर राव को बालिग होने पर देने के लिए कहा गया था।
रानी अंग्रेजों की कूटनीति को भलीभांति समझती थी।
वह कभी भी उनकी बातों में नहीं आती। करती भी वही जो उसके मन में आता।
वह अपनी योजना में भूत सी जुटी थी। उसे पूरी-पूरी आशंका थी कि कंपनी सरकार चुप नहीं बैठेगी।
वह झांसी के किले पर हमला करेगी, सैनिकों को कुचल देगी। उसमें बहुत बड़ी ताकत है।
रानी आजादी की लड़ाई के लिए प्रत्येक का सहयोग चाहती थी। और वह सहयोग उसे लगभग अस्सी प्रतिशत प्राप्त था।
उसका अपना व्यक्तित्व निराला था। जो भी एक बार उसे देख लेता प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
राज्य की बागडोर
झांसी के राज्य की बागडोर अब रानी के हाथ में आ गई थी।
उसने युद्ध के लिए पूरी तैयारी कर ली थी और करती जा रही थी।
उसे छोटे-बड़े लगभग सभी का सहयोग प्राप्त था।
वह अच्छी तरह जानती थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी चुप नहीं बैठी रहेगी।
वह एक बार पूरी झांसी को रौंद डालेगी। हमारे सैनिकों ने उतावली से काम लिया।
उन्हें अंग्रेज सैनिकों का बध नहीं करना चाहिए था। लेकिन अब जो हो गया है उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा। मैं तैयार हूं। अंग्रेजों से मोर्चा लूंगी। मैं भारत मां की बेटी हूं।
उस पर अपना खून बहा दूंगी।
ऐसी विचारधाराएं रानी के मन में प्रायः आती रहतीं। वह अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण तथा जागरूक थी।
सैन्य-संगठन उसने बहुत अच्छा कर लिया था। यद्यपि उसके पास विशाल क्या केवल नाम मात्र की थोड़ी सी सेना थी; लेकिन उसे उस पर बड़ा गर्व था।
इसीलिए उसने बिठूर के नाना से मदद मांगी थी। उसे उनके उत्तर की प्रतीक्षा थी; मगर अभी कोई जवाब नहीं आया था।
रानी को विश्वास था कि बिठूर से उसे सैनिक सहायता अवश्य मिलेगी। इसके अतिरिक्त उसने शक्ति को बढ़ा रखा था।
युद्ध का प्रशिक्षण चलता ही रहता।
सारे देश में क्रांति की लहर दौड़ गई थी। अंग्रेजों और भारतीयों में मारकाट चल रही थी।
अंग्रेज सैनिक तो मुकाबिले पर आते; परंतु स्त्री-बच्चे अपनी जान की खैर मना रहे थे। भारतीय परिवार भी सुरक्षित नहीं थे, उन्हें भी जान-माल का भय था। देश की स्थिति बहुत ही खराब हो रही थी।
यह भी पता लगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सेना में वृद्धि कर दी है।
उसे उन राज्यों से खतरा बढ़ गया है, जिन पर उसने जबरदस्ती कब्जा कर रखा है। झांसी की मिसाल सामने थी।
रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले पर अधिकार कर लिया था और आजकल राज-काज वही चला रही थी।
इससे अंग्रेज भविष्य के लिए आगाह हो गए थे।
रानी भी कम सशंकित नहीं थी।
उसे लगता था कि राज्य फिर से संभालकर उसने अंग्रेजों को युद्ध के लिए निमंत्रण दिया है।
उसमें जीवट थी। वह अपने साथियों तथा सखियों से कहती कि युद्ध के लिए हर समय तैयार रहो। दुश्मन किसी भी समय आ सकता है। हमें आग में कूदना है और यह तभी संभव हो सकेगा जबकि प्राण हथेली पर रख लें।
लोगों में रानी की वक्तृता सुनकर जोश आ जाता। वे अपनी महारानी के प्रति श्रद्धा से भर जाते।
अभी रानी ईस्ट इंडिया कंपनी को ही अपना दुश्मन समझती; लेकिन एक दिन पता चला कि सदाशिव राव होल्कर झांसी पर अधिकार करना चाहता है। वह बहुत दिनों से झांसी पर आंख लगाए था।
अंग्रेजी सरकार के सामने उसने सिर उठाने का साहस नहीं किया।
लेकिन जब से रानी ने पुनः झांसी का शासन-सूत्र अपने हाथ में लिया वह इसी प्रयत्न में रहने लगा कि किस प्रकार हमला करके मैं झांसी की गद्दी पर बैठ जाऊं।
आखिर सदाशिव राव होल्कर ने षड्यंत्र रचकर झांसी पर धावा बोल दिया।
रानी ने बड़ी बहादुरी से उसका मुकाबिला किया।
होल्कर के दांत खट्टे हो गए। वह युद्ध-भूमि से भाग गया। रानी को उसकी इस दशा पर बड़ी हंसी आई कि सदाशिव राव होल्कर अपने को झांसी का दावेदार बतलाता था। क्या इस बल पर राज्य करना चाहता था कि स्त्री से हार कर भाग गया।
गदर की स्थिति सारे देश में उत्पन्न हो गई थी।
अंग्रेजों के अत्याचार से लोग ऊब चुके थे। सभी चाहते थे कि वे हमारे देश से चले जाएं। भारत का बच्चा-बच्चा अंग्रेजों के खिलाफ था। शांति का लोप हो चुका था। सर्वत्र अशांति फैल रही थी।
अंग्रेज विद्रोह को बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न कर रहे थे; लेकिन क्रांति जोरों के साथ भड़क उठी थी।
उस पर काबू पाना उनके वश से बाहर हो रहा था। वे एक जगह के विद्रोह को दबाते तो दूसरी तरफ आग सुलग उठती।
छोटे-मोटे सभी राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी से अत्यधिक नाराज थे।
वे सब बड़ी तेजी के साथ संगठन के सूत्र में बंधने लगे। हां कुछ ऐसे भी गद्दार थे जो कंपनी सरकार से जा मिले।
रानी ऐसे गद्दारों से हमेशा सावधान रहती। उसने अपने सैनिकों में आत्मविश्वास की भावना भर दी थी।
सैनिक ही नहीं जनता भी देश-प्रेम की दीवानी हो रही थी। गदर की आग सारे देश में फैल गई थी।
लक्ष्मी बाई की साहस
सदाशिव राव होल्कर को पराजित करने के बाद रानी निश्चित होकर नहीं बैठ गयी।
उसका भावी कार्यक्रम ज्यों का त्यों चलता रहा।
वह अंग्रेजों की ओर से पूर्णतया सावधान थी और यह साहस रखती थी कि उनका खूब डटकर मुकाबला करेगी।
ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से रानी को जो भय था।
वह तो शीघ्र सामने नहीं आया; लेकिन एक दूसरा शत्रु उसके सामने मैदान में आ गया।
यह था ओरछा राज्य का दीवान। इसकी नियत बहुत दिनों से अच्छी नहीं थी।
यह झांसी पर घात लगाए बैठा था और मौके की तलाश में था।
वही उसने सुना कि झांसी के किले में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मौत के घात उतार दिया है और रानी ने किले पर अधिकार कर लिया।
राज्य वही चला रही थी। सदाशिव राव होल्कर को उसने पराजित कर दिया। तो उसने नत्थेखां को ओरछा राजा की तरफ से झांसी के किले पर हमला करने भेजा।
रानी के गले में हीरों की माला थी। वह वीर सेनानी लग रही थी।
उसके चेहरे पर तेज था। उसने ढीला रेशमी पैजामा पहन रखा था। उसकी कंचुकी कमर तक फैली थी।
उसकी कमर में अगल-बगल दो पिस्तौलें लटकतीं वे चांदी से मढ़ी थीं।
रानी चोली पहनती चादर डालती। उसकी पोशाक निराली थी। वह सिर पर ताज नहीं टोपी पहनती थी।
और वह रेशमी टोपी लाल और मोतियों से जड़ी होती। रानी सचमुच इस लिवास में देवकन्या मालूम होती।
युद्ध भूमि में रानी ने नत्थे खां के दांत खट्टे कर दिए। उन्होंने बड़ी चतुराई से काम लिया।
नत्थे खां को अच्छी तरह छकाया।
आखिर हार मानकर उसे पीछे लौटना पड़ा। पराजित होकर भी वह रानी के आकर्षक व्यक्तित्व से मुकाबले हुए बिना नहीं रहा। उसने रानी के युद्ध कौशल की बड़ी प्रशंसा की।
लेकिन मुंह की खाकर गया था नत्थे खां, वह चुप नहीं बैठा वह अपनी फरियाद लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी की रेजीडेंसी में गया।
वहां रोया-धोया और अंग्रेजों को उकसाया कि वे झांसी पर आक्रमण करें और किला अपने अधिकार में ले लें।
शत्रुओं को हराकर रानी ने दस महीने तक निष्कंटक राज्य किया। उसने प्रजा की सुख शांति के लिए अनेक उपाय किए। और उस पर काफी ध्यान दिया।
अपराधियों की उसने दंड दिया और सेना के संगठन पर भी काफी जोर दिया। इसमें उसे पूरी-पूरी सफलता मिली।
रानी नगर का गश्त कभी-कभी स्वयं करती। वह अंग्रेजों के गुप्तचरों को कड़ी सजा देती। उनके षड्यंत्र चलने नहीं देती, उनसे सावधान रहती। वह आगामी आपत्ति से पहले ही आगाह थी।
उसने अपनी सेना को खूब अच्छी तरह सुशिक्षित और सुसंगठित कर लिया था।
उसकी सेना में भरती निरंतर जारी थी। वह सहयोग भी प्राप्त कर रही थी नगर के गणमान्य लोगों का।
हर रईस देश की सुरक्षा के लिए दान दे रहा था। वह छोटा-मोटा कोष रानी के लिए संतोष की निधि था।
सुंदर को उसने उस योग्य बना लिया था कि वह एक कुशल सेना पाने का कार्य सुचारु रूप से कर सकती थी। मुंदर अपनी दूसरी कला में दक्ष थी। वह व्यूह रचना में अपना कमाल दिखलाती।
इस तरह एक छोटी सी सेना भी बड़ी सेना का मुकाबला कर सकती थी।
काशी तलवार चलाने में अपनी सानी नहीं रखती। वह घोड़े पर कूद कर बैठती और फिर सरपट दौड़ाती।
वह तेज से भी तेज दौड़ने वाले घोड़े का पीछा कर सकती थी। रानी इन तीनों को अपनी दाहिनी बांह समझती। वह गर्व के साथ कहती कि मैं अकेली नहीं मेरी चार भुजाएं हैं। रामचंद्र राव रानी के प्रमुख सेनानी थे। रानी को उनपर भी गर्व था। वे उनके बहुत ही अधिक विश्वासपात्र थे।
रानी की सेना में हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमान सैनिक भी कम नहीं थे।
वह सबको समान दृष्टि से देखती और सबका आदर करती। उस समय देश का रुख कुछ और ही हो रहा था। हिंदू और मुसलमान दोनों परस्पर विरोधी भावनाएं भूल गए थे। वे आपस में संगठन की डोर में बंध रहे थे और उनका सम्मिलित प्रयास था कि देश से किसी तरह अंग्रेजों को निकालकर बाहर किया जाए।
रानी विषम परिस्थितियों से गुजर रही थी। तात्याटोपे ने उसे अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए सहायता देने का वचन दिया था।
वह ईस्ट इंडिया कंपनी से टक्कर लेने के लिए पूरी तरह तैयार थी।
उसे प्रजा के हितों का भी ध्यान था। वह समाज सुधार के पक्ष में भी थी।
उसकी दृष्टि व्यापक थी। वह दूर की सोचती और केवल योजना बनाकर ही नहीं रह जाती उस पर पूरा-पूरा अमल करती।
जो रास्ता किसी को बतलाती उस पर आंख मूंदकर पहले ही चल देती।
उसके साहस का खजाना भरा था, वह जीवट की पुतली थी। कठिनाइयों से तनिक भी नहीं घबड़ाती। वह आपत्ति में भी मुस्कराती रहती थी।
रानी का रूप जो एक बार देख लेता वह भक्त बना जाता। उसमें तत्क्षण ही श्रद्धा का संचार होने लगता।
रानी का मुख-कमल वीरोल्लास से चमकता रहता था। उसकी वाणी में ओज था और गति में जादू। वह अपने शरीर को हाड़-मांस का नहीं फौलाद का समझती थी।
रानी यह सोच रही थी कि यदि उसकी सेना में और भी वृद्धि हो गई तो उसकी ताकत बढ़ जाएगी और वह अंग्रेजों का मुकाबला करने में कमजोर नहीं पड़ेगी।
इसके लिए समय चाहिए था।
नित्य नए समाचार सुनने को मिलते कि नत्थे खां अंग्रेजों की छावनी में जाकर फिर रोया है।
उसने जनरल रोज को उकसाया है कि वह झांसी पर हमला कर दे। रानी कंपनी सरकार के खिलाफ प्रचार कर रही है।
उसके दमन के लिए एक विशाल अंग्रेजी सेना लेकर चढ़ाई की जाए।
कामयाबी तभी मिलेगी। रानी के पास एक अच्छा तोपखाना है।
उसने बहुत सी तोपें किले की दीवार पर लगा रखी थीं।
अंग्रेज से युद्ध
अंग्रेज से युद्ध में रानी का साहस | लड़ाई की सारी प्रबंध
ओरछा राज्य का नत्थे खां रानी के पीछे हाथ धोकर पड़ गया था।
वह जनरल रोज के पास से तभी हटा जब उसे झांसी पर आक्रमण करने के लिए राजी कर लिया।
जनरल रोज एक बहुत बड़ी सेना लेकर झांसी की ओर चल दिया।
उसने आते ही किले को चारों ओर से घेर लिया। रानी घबड़ाई नहीं।
वह पहले से ही तैयार बैठी थी। उसने मां दुर्गा को स्मरण किया।
लड़ाई की सारी आवश्यकताओं का ठीक-ठीक प्रबंध किया; बल्कि यों कहना चाहिए कि यह कार्य तो उसने पहले ही पूरा कर लिया था।
उसने किले की दीवारों पर तोपें चढ़वा दी थीं। स्वयं भी रणभूमि के लिए तैयार हो गई। इस समय उसके मुंह का तेज देखते ही बनता था।
वह ऐसी लग रही थी कि मानो साक्षात रणचण्डी हो।
और म्लेच्छों का संहार करने के लिए ही पैदा हुई हो।
यह तेईस मार्च अठारह सौ अट्ठावन का प्रभात था।
जब अंग्रेजों ने झांसी के किले को खूब अच्छी तरह से घेर लिया।
अंग्रेजी सेना की तोपें आग बरसाने लगीं।
उधर रानी की तोपों की भी गड़गड़ाहट होती। पलीता रखते ही गोला छूटता। धांय की आवाज होती। तोपें आग उबल रही थीं चारों ओर धुआं ही धुआं छा रहा था।
दोनों ओर से कोई भी पक्ष कमजोर नहीं पड़ा।
चार दिन तक लगातार तोपें गोले बरसाती रहीं। यद्यपि अंग्रेजों की सेना बहुत बड़ी थी।
लेकिन फिर भी उसके दांत खट्टे हो गए और पैर उखड़ने लगे। वह भागने लगी। जनरल रोज इससे बुरी तरह खिसिया गया।
रानी को गुप्त सूत्रों द्वारा यह पता चला चुका था कि तांत्या टोपे उसकी मदद के लिए आ रहा है। उसके साथ अच्छी खासी फौज है। वह उसकी प्रतीक्षा करने लगी।
इधर अंग्रेज भी मुंह की खा रहे थे। जनरल रोज बहुत परेशान था।
उसकी सेना के न जाने कितने सैनिक मारे गए। अगर किले की दीवाल तक एक भी नहीं पहुंच सका। रानी ने किले की दीवालों पर बहुत अच्छी मोर्चाबंदी की थी।
अंग्रेज अफसर अचरज में थे कि औरत जात होते भी लक्ष्मीबाई मर्दो के कान काटती है।
उसने ऐसी किलेबंदी की है कि चार दिन क्या चार महीने बीत जाएंगे और यह मोर्चा नहीं टूटेगा।
रानी के पास यद्यपि अंग्रेजों से बहुत कम तोपें थीं लेकिन फिर भी वे लगातार आग उगले जा रही थीं।
उनकी भयंकर मार के सामने अंग्रेज सैनिक जाने का साहस नहीं करते। अंग्रेज इस कोशिश में थे कि किसी तरह किले की दीवार टूट जाए। इसीलिए
बहुत उनकी तोपें आग बरसा रही थीं। वे गोलों पर गोले छोड़ रही थीं।
अंग्रेजों ने यहां पर जब देखा कि किले की मोर्चेबन्दी तगड़ी है। उस पर आसानी से अधिकार नहीं हो सकता तो घूस देकर उन्होंने किले के अफसरों को अपनी ओर मिलाने की कोशिश की।
इसमें वह किसी हद तक सफल हो गए।
दीवान दूल्हा जू जो एक नायक दीवान था, उसने छिपे तौर से देश-द्रोह किया।
वह अंग्रेजों की छावनी में गया और उन्हें अपने सैनिक भेद बतलाए, इसके बदले में उसने उनसे मुंहमांगा इनाम पाया।
इस तरह उस समय देश-भक्तों की कमी नहीं थी। और गद्दार देशद्रोही भी मौजूद थे।
वे कलंक बन गए देश के लिए और देश की आजादी की रक्षा नहीं हो पायी।
बस फिर क्या था-अंग्रेजों की तोपें खूखार हो उठीं।
उन्होंने तय कर लिया था कि वे गोलों से ही किले की दीवार तोड़ देंगे। रानी के पास कितनी बारूद और कितने गोले होंगे। वह कब तक अंग्रेजी सेना का, मुकाबला करेगी। उसे हार माननी ही पड़ेगी। वह बचकर किले से कहीं भी नहीं जा सकती।
नत्थे खां तो अंग्रेजी सेना के साथ था ही।
झांसी का नायक जीवट दूल्हा जू भी अंग्रेजों से मिल गया। उसने उनसे बहुत बड़ी रकम प्राप्त की।
रानी को इस षड्यंत्र का पता नहीं चला। वह युद्ध के आवेष में थी उसके पास सोचने विचारने के लिए समय नहीं था।
उसकी सखियां भी मोर्चेबंदी पर थीं। वे सब सोच भी नहीं सकती थीं कि किले के अंदर गद्दार भी हैं। जो दुश्मन का नमक खा रहे हैं और उसको भेद दे रहे हैं ।
आज युद्ध का पांचवां दिन था। सबेरा होते ही तोपों की गड़गड़ाहट शुरू हो गई।
अंग्रेजी सेना तितर-बितर होती, फिर एकत्रित हो जाती।
उधर किले का एक भी सिपाही नहीं मर रहा था।
झांसी नगर में हलचल मच रही थी। अंग्रेजों का आतंक सब ओर छा रहा था।
किले का एक भी बच्चा बाहर नहीं आ पाता। गुप्त रास्तों से केवल खास व्यक्ति ही आते-जाते।
अंग्रेजों ने बाजार लूट लिया, प्रजा को सताया। रिआया बड़े-बड़े आंसुओं रो रही थी। उधर रानी एक तरह से किले में कैद थी। जब तक अंग्रेजों का मोर्चा नहीं टूटता वह किले से बाहर नहीं आ सकती है।
जनरल रोज की आंखों से खून बरस रहा था।
वह अपने सैनिकों को धिक्कारता, अफसरों को जली-कटी सुनाता। वह कहता कि तुम लोग कैसे मर्द हो जो कि एक औरत से नहीं जीत सकते।
अगर रानी पर विजय नहीं पायी तो तुम सबको मौत के घाट उतार दिया जाएगा। कोशिश करो, आगे बढ़ो और किले की दीवार को तोड़ दो।
इसके बिना रानी काबू में नहीं आएगी और किले पर अधिकार नहीं होगा।
झांसी में कोहराम मचा
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